कबीर शब्द का अर्थ इस्लाम के अनुसार महान होता है। वे एक बहुत बड़े आध्यात्मिक व्यक्ति थे जो साधू का जीवन व्यतीत करने लगे थे। उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व की वजह से उन्हें पूरी दुनिया की प्रसिद्धि प्राप्त हुई। कबीरदास हमेशा जीवन के कर्म में विश्वास करते थे वह कभी भी अल्लाह और राम के बिच भेद नहीं करते थे।
उन्होंने हमेशा अपने उपदेश में इस बात का जिक्र किया कि ये दोनों एक ही भगवान के दो अलग नाम हैं। उन्होंने लोगों को उच्च जाति और नीच जाति या किसी भी धर्म को नकारते हुए भाईचारे के एक धर्म को मानने के लिए प्रेरित किया। कबीरदास ने अपने लेखन से भक्ति आंदोलन को चलाया है।
कबीर पंथ नामक एक धार्मिक समुदाय है जो कबीर के अनुयायी हैं उनका यह मानना है कि उन्होंने संत कबीर सम्प्रदाय का निर्माण किया है। इस संप्रदाय के लोगों को कबीर पंथी कहा जाता है जो पूरे देश में फैले हुए हैं। संत कबीरदास जी के दोहे गागर में सागर के समान हैं। उनका गूढ़ अर्थ समझकर अगर कोई उन्हें अपने जीवन में उतारता है तो उसे निश्चय ही मन की शांति के साथ-साथ ईश्वर की प्राप्ति होगी।
1. बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि जब मैंने इस संसार में बुराई को ढूंढा तब मुझे कोई बुरा नहीं मिला, जब मैंने खुद का विचार किया तो मुझसे बड़ी बुराई नहीं मिली। दूसरों में अच्छा-बुरा देखने वाला व्यक्ति हमेशा खुद को नहीं जानता। जो दूसरों में बुराई ढूंढते हैं वास्तव में वही सबसे बड़ी बुराई है।
2. पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
अर्थ – उच्च ज्ञान प्राप्त करने पर भी हर कोई विद्वान् नहीं हो जाता। अक्षर ज्ञान होने के बाद भी अगर उसका महत्व न जान पाए, ज्ञान की करुणा को जो जीवन में न उतार पाए तो वो अज्ञानी ही है लेकिन जो प्रेम के ज्ञान को जान गया, जिसने प्यार की भाषा को अपना लिया वह बिना अक्षर ज्ञान के विद्वान् हो जाता है।
3. धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
माली सींचे सौ घडा, ऋतू आए फल होय।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि धीरज ही जीवन का आधार है, जीवन के हर दौर में धीरज का होना जरूरी है फिर चाहे वह विद्यार्थी जीवन हो, वैवाहिक जीवन हो या व्यापारिक जीवन। कबीरदास जी ने कहा है कि अगर कोई माली किसी पौधे को 100 घड़े पानी भी डाले तो वह एक दिन में बड़ा नहीं होता और न ही बिन मौसम फल देता है। हर बात का एक निश्चित समय होता है जिसको प्राप्त करने के लिए व्यक्ति में धीरज होना बहुत जरूरी है।
4. जाति न पूछो साधू की, पूछ लीजिए ज्ञान,
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान।
अर्थ – किसी भी व्यक्ति की जाति से उसके ज्ञान का बोध नहीं किया जा सकता, किसी सज्जन की सज्जनता का अनुमान भी उसकी जाति से नहीं लगाया जा सकता इसलिए किसी से उसकी जाति पूछना व्यर्थ है उसका ज्ञान और व्यवहार ही अनमोल है। जैसे किसी तलवार का अपना महत्व है पर म्यान का कोई महत्व नहीं, म्यान महज उसका ऊपरी आवरण है जैसे जाति मनुष्य का केवल एक शाब्दिक नाम।
5. बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि,
हिए तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि जिसे बोल का महत्व पता है वह बिना शब्दों को तोले नहीं बोलता। कहते हैं कि कमान से छूटा तीर और मुंह से निकले शब्द कभी वापस नहीं आते इसलिए इन्हें बिना सोचे-समझे इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। जीवन में समय बीत जाता है परंतु शब्दों के बाण जीवन को रोक देते हैं। इसलिए वाणी में नियंत्रण और मिठास का होना जरूरी है।
6. चाह मिटी, चिंता मिटी मनवा बेपरवाह,
जिसको कुछ नहीं चाहिए वह शहनशाह।
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास जी ने कहा है कि कबीर ने अपने इस दोहे में बहुत ही उपयोगी और समझने योग्य बात लिखी है कि इस दुनिया में जिस व्यक्ति को पाने की इच्छा है उसे उस चीज को पाने की ही चिंता है, मिल जाने पर उसे खो देने की चिंता है वो हर पल बैचेन है जिसके पास खोने को कुछ है लेकिन इस दुनिया में वही खुश है जिसके पास कुछ नहीं, उसे खोने का दर्न्हीं, उसे पाने की चिंता नहीं, ऐसा व्यक्ति ही इस दुनिया का राजा है।
7. माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंदे मोय,
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय।
अर्थ – कबीरदास जी ने कहा है कि बहुत ही बड़ी बात को कबीरदास जी ने बड़ी सहजता से कह दिया। उन्होंने कुम्हार और उसकी कला को लेकर कहा है कि मिट्टी एक दिन कुम्हार से कहती है कि तू क्या मुझे कूट-कूटकर आकार दे रहा है एक दिन आएगा जब तू खुद मुझ में मिलकर निराकार हो जाएगा अथार्त कितना भी कर्मकांड कर लो एक दिन मिट्टी में ही समाना है।
8. माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मन का डार दे, मन का मनका फेर।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि लोग सदियों तक मन की शांति के लिए माला हाथ में लेकर ईश्वर की भक्ति करते हैं लेकिन फिर भी उनका मन शांत नहीं होता इसलिए कवि कबीरदास कहते हैं कि हे मनुष्य इस माला को जपकर मन की शांति ढूंढने के बजाए तू दो पल अपने मन को टटोल, उसकी सुन देख तुझे अपने आप ही शांति महसूस घोने लगेगी।
9. तिनका कबहूँ न निंदये, जो पांव तले होय,
कबहूँ उड़ आँखों पड़े, पीर घानेरी होय।
अर्थ – कबीरदास कहते हैं कि जैसे धरती पर पड़ा तिनका आपको कभी कोई कष्ट नहीं पहुँचाता लेकिन जब वही तिनका उड़कर आँख में चला जाए तो बहुत कष्टदायी हो जाता है अथार्त जीवन के क्षेत्र में किसी को भी तुच्छ अथवा कमजोर समझने की गलती न करे जीवन के क्षेत्र में कब कौन क्या कर जाए कहा नहीं जा सकता।
10. गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, काके लागूं पांय,
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो मिलाय।
अर्थ – कबीरदास जी ने यहाँ पर गुरु के स्थान का वर्णन किया है। वे कहते हैं कि जब गुरु और खुद ईश्वर एक साथ हो तब किसका पहले अभिवादन करें अथार्त दोनों में से किसे पहला स्थान दें? इस पर कबीरदास जी कहते हैं कि जिस गुरु ने ईश्वर का महत्व सिखाया है जिसने ईश्वर से मिलाया है वही श्रेष्ठ हैं क्योंकि उसने ही तुम्हें ईश्वर क्या है बताया है और उसने ही तुन्हें इस लायक बनाया है कि आज तुम ईश्वर के सामने खड़े हो।
11. दुःख में सुमिरन सब करैं सुख में करै न कोई,
जो सुख में सुमिरन करै तो दुःख कहे होई।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि जब मनुष्य जीवन में सुख आता है तब वो ईश्वर को याद नहीं करता लेकिन जैसे ही दुःख आता है वो दौड़ा दौड़ा ईश्वर के चरणों में आ जाता है फिर आप ही बताएं कि ऐसे भक्त की पीड़ा को कौन सुनेगा?
12. साईं इतना दीजिए, जा में कुटुम समाय,
मैं भी भूखा न रहूँ, साधू न भूखा जाए।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि प्रभु इतनी कृपा करना जिसमें मेरा परिवार सुख से रहे और न मैं भूखा रहू और कोई सदाचारी मनुष्य भी भूखा न सोए। यहाँ कवि ने परिवार में संसार की इच्छा रखी है।
13. कबीरा ते नर अंध है, गुरु को कहते और,
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर।
अर्थ – कबीरदास जी ने इस दोहे में जीवन में गुरु का क्या महत्व है वो बताया है। वे कहते हैं कि मनुष्य तो अँधा है सब कुछ गुरु ही बताता है अगर ईश्वर नाराज हो जाए तो गुरु एक डोर है जो ईश्वर से मिला देती है लेकिन अगर गुरु ही नाराज हो जाए तो कोई डोर नहीं होती जो सहारा दे।
14. माया मरी न मन मर, मर-मर गए शरीर,
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर।
अर्थ – कविवर कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य की इच्छा, उसका एश्वर्य अथार्त धन सब कुछ नष्ट होता है यहाँ तक की शरीर भी नष्ट हो जाता है लेकिन फर भी आशा और भोग की आस नहीं मरती।
15. बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर,
पंथी को छाया नहीं फल आगे अति दूर।
अर्थ – कबीरदास जी ने बहुत ही अनमोल शब्द कहे हैं कि यूँही बड़ा कद होने से कुछ नहीं होता क्योंकि बड़ा तो खजूर का पेड़ भी है लेकिन उसकी छाया राहगीर को दो पल का सुकून नहीं दे सकती और उसके फल इतने दूर हैं कि उन तक आसानी से पहुंचा नहीं जा सकता। इसलिए कबीरदास जी कहते हैं ऐसे बड़े होने का कोई फायदा नहीं, दिल से और कर्मों से जो बड़ा होता है वही सच्चा बडप्पन कहलाता है।
16. तू-तू करू तो निकट है, दूर-दूर करू हो जाए,
ज्यौं गुरु राखै त्यों रहे, जो देवै सो खाय।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि तू-तू करके बुलावे तो निकट जाए, अगर दूर-दूर करके दूर करे तो दूर जाए। गुरु और स्वामी जैसे रखे उसी तरह रहे, जो देवें वही खाए। कबीरदास जी कहते हैं कि यही अच्छे सेवक के आचरण होने चाहिए।
17. निर्मल गुरु के नाम सों, निर्मल साधू भाय,
कोइला होय न उजला, सौ मन साबुन लाय।
अर्थ – सत्तगुरु के सत्य-ज्ञान से निर्मल मनवाले लोग भी सत्य-ज्ञानी हो जाते हैं लेकिन कोयले की तरह काले मनवाले लोग मन भर साबुन मलने पर भी उजले नहीं हो सकते-अथार्त उन पर विवेक और बुद्धि की बातों का कोई असर नहीं पड़ता।
18. काल करे सो आज कर, आज करे सो अब,
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि जो कल करना है उसे आज करो और और जो आज करना है उसे अभी करो, कुछ ही समय में जीवन खत्म हो जाएगा फिर यौम क्या कर पाओगे।
19. दीपक सुंदर देख करि, जरि-जरि मरे पतंग,
बढ़ी लहर जो विषय की, जरत न मोरें अंग।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि जिस तरह दीपक की सुनहरी और लहराती लौ की ओर आकर्षित होकर कीट-पतंगे उसमें जल मरते हैं उसी तरह जो कामी लोग होते है वो विषय-वासना की तेज लहर में बहकर ये तक भूल जाते हैं कि वे डूब मरेंगे।
20. बंदे तू कर बंदगी, तो पावै दीदार,
औसर मानुष जन्म का, बहुरि न बारम्बार।
अर्थ – हे सेवक! तू सदगुरु की सेवाकर क्योंकि सेवा के बिना उसका स्वरूप- साक्षात्कार नहीं हो सकता है। तुझे इस मनुष्य जन्म का उत्तम अवसर बारम्बार न मिलेगा।
21. संसारी से प्रीतड़ी, सरै न एकी काम,
दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि संसारी लोगों से प्रेम और मेल-जोल बढ़ाने से एक भी काम अच्छा नहीं होता, बल्कि दुविधा या भ्रम की स्थिति बन जाती है, जिसमें न तो भौतिक संपत्ति हासिल होती है, न आध्यात्मिक। दोनों ही हाथ खाली रह जाते है।
22. सुख के संगी स्वारथी, दुःख में रहते दूर,
कहै कबीर परमारथी, दुःख सुख सदा हजूर।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि स्वार्थी लोग मात्र सुख के साथी होते हैं। जब दुःख आता है तो भाग खड़े होने में क्षणिक विलम्ब नहीं करते हैं और जो सच्चे परमार्थी होते हैं वे दुःख हो या सुख सदा साथ होते हैं।
23. भय से भक्ति करै सबै, भय से पूजा होय,
भय पारस है जिव को, निरभय होय न कोय।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि सांसारिक भी की वजह से ही लोग भक्ति और पूजा करते हैं। इस प्रकार भी जीव के लिए पारस के समान है, जो इसे भक्तिमार्ग में लगाकर उसका कल्याण करता है। इसलिए सन्मार्ग पर चलने के लिए जरूरी है कि सभी भीरु हों।
24. यह बिरियाँ तो फिरि नहीं, मन में देखु विचार,
आया लाभहि कारनै , जनम जुआ मत हार।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि हे दास! सुन, मनुष्य जीवन बार-बार नहीं मिलता, इसलिए सोच-विचार कर ले कि तू लाभ के लिए अथार्त मुक्ति के लिए आया है। इस अनमोल जीवन को तू सांसारिक जुए में मत हार।
25. झूठा सब संसार है, कोऊ न अपना मीत,
राम नाम को जानि ले, चलै सो भौजल जीत।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि यह संसार झूठा और असार है जहाँ कोई अपना मित्र और संबंधी नहीं है। इसलिए तू राम-नाम की सच्चाई को जान ले तो ही इस भवसागर से मुक्ति मिल जाएगी।
26. कबीरा खड़ा बाजार में, सबकी मांगे खैर,
ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर।
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि विरोध, कटुता, तनाव और टकराव को भुलाकर सबके बारे में भला सोच। न तू किसी से ज्यादा दोस्ती रख और न ही किसी से दुश्मनी।
27. कहे कबीर कैसे निबाहे, केर बेर को संग,
वह झुमत रस आपनी, उसके फाटत अंग।
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि जैसे केले और बेर का पेड़ साथ-साथ नहीं लगा सकते क्योंकि हवा से बेर का पेड़ हिलेगा और उसके काँटों से केले के पत्ते कट जाएंगे उसी तरह भिन्न प्रकृति के लोग एक साथ नहीं रह सकते।
28. सुख में सुमिरन न किया, दुःख में करते याद,
कह कबीर ता दास की, तो कौन सुने फरियाद।
अर्थ -कबीरदास जी कहते हैं कि हे दास! जब तूने अपने अच्छे समय में भगवान का सुमिरन नहीं किया है और अब तू उसे बुरे समय में याद कर रहा है तो फिर कौन तेरा रोना सुनेगा।
29. रात गवाई सोए के, दिवस गवाया खाय,
हीरा जनम अनमोल था कोड़ी बदले जाए।
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि अपना पूरा जीवन केवल सोते और खाने में ही बर्बाद कर देने वाले हे मनुष्य तू याद रख कि भगवान ने यह अनमोल जन्म उंचाईयों को हासिल करने के लिए दिया है, न कि इसे बेकार करने के लिए।
30. ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय,
औरन को शीतल करै, आपहु शीतल होय।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि मान और अहंकार का त्याग करके ऐसी वाणी में बात करें कि औरों के साथ-साथ स्वंय को भी खुशी मिले। कबीरदास जी कहते हैं कि केवल मीठी वाणी से ही दिल जीते जाते हैं।
31. बार-बार तोसों कहा, रे मनुवा नीच,
बनजारे का बैल ज्यों, पैडा माही मीच।
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि हे नीच मनुष्य! सुन, तुझसे मैं बारम्बार कहता रहा हूँ। जैसे एक व्यापारी का बैल बिच मार्ग में प्राण गवा देता है वैसे तू भी अचानक एक दिन मर जाएगा।
32. पाहन केरी पूतरी, करि पूजै संसार,
याहि भरोसें मत रही, बूडो काली धार।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि पत्थर की मूर्ति बनाकर, संसार के लोग पूजते हैं। लेकिन इसके भरोसे मत रहो, अन्यथा कल्पना के अंधकार कुएँ में, अपने आप को डूबे-डुबाए समझो।
33. पाहन पूजै हरि मिलै, तो मैं पूजूँ पहार,
ताते तो चक्की भली, पीसि खाय संसार।
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास जी कहना है कि अगर पत्थर के पूजने से ज्ञान या कल्याण की प्राप्ति हो तो मैं पर्वत को पूजने पर डट जाऊं। मूर्ति पूजने से तो चक्की पूजना अच्छा है, जिससे आटा पीसकर संसार खाता है।
34. न्हाए धोए क्या भया, जो मन मैला न जाए,
मीन सदा जल में रहै, धोए बास न जाए।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि पवित्र नदियों में शारीरिक मैल धो लेने से कल्याण नहीं होता। इसके लिए भक्ति-साधना से मल का मैल साफ करना पड़ता है। जैसे मछली हमेशा जल में रहती है, लेकिन इतना धुलकर भी उसकी दुर्गंध समाप्त नहीं होती।
35. मन मक्का दिल द्वारिका, काया काशी जान,
दश द्वारे का देहरा, तामें ज्योति पिछान।
अर्थ – इस दोहे में कबीर जी कहते हैं कि पवित्र मन ही मक्का और दिल ही द्वारिका है और काया को ही काशी जानो। दस-द्वारों के शरीर-मंदिर में ज्ञान प्रकाशमय स्व-स्वरूप चेतन को ही सत्य देवता समझो।
36. साधू ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय,
सार-सार को गहि रहै थोथा देई उड़ाय।
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास जी ने इस संसार की सभी बुरी चीजों को हटाने और अच्छी चीजों को समेट सकने वाले विद्वान व्यक्तियों के विषय में बता रहे हैं। दुनिया में ऐसे साधुओं और विद्वानों की आवश्यकता है जैसे अनाज साफ करने वाला सूप होता है जो सार्थक को बचा लेंगे और निरर्थक को उड़ा देंगे।
37. जो तोको काँटा बुवै ताहि बोव तू फूल,
तोहि फूल को फूल है वाको है तिरसुल।
38. उठा बगुला प्रेम का तिनका चढ़ा अकास,
तिनका तिनके से मिला तिन का तिन के पास।
39. सात समंदर की मसि करौ लेखनि सब बनराइ,
धरती सब कागद करौ हरि गुण लिखा न जाइ।
40. साधू गाँठ न बांधई उदर समाता लेय,
आगे-पाछे हरि खड़े जब मांगे तब देय।
41. आछे-पाछे दिन पाछे गए हरि से किया न हेत,
अब पछताए हॉट क्या, चिड़िया चुग गई खेत।
अर्थ – इस दोहे में कबीर दास जी कहते हैं कि देखते ही देखते सब भले दिन-अच्छा समय बीतता चला गया-तुमने प्रभु से लौ नहीं लगाई-प्यार नहीं किया समय बीत जाने पर पछताने से क्या मिलेगा? पहले जागरूक न थे-ठीक उसी तरह जैसे कोई किसान अपने खेत की रखवाली ही न करे और देखते ही देखते पंछी उसकी फसल बर्बाद कर जाएं।
42. कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी,
एक दिन तू भी सोवेगा, लंबे पाँव पसारी।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि अज्ञान की नींद में सोए क्यों रहते हो? ज्ञान की जागृति को हासिल कर प्रभु का नाम लो। सजग होकर प्रभु का ध्यान करो। वह दिन दूर नहीं जब तुम्हें गहन निंद्रा में सो जाना है-जब तक जाग सकते हो जागते क्यों नहीं? प्रभु का नाम स्मरण क्यों नहीं करते?
43. जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही,
सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही।
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि जब मैं अपने अहंकार में डूबा था तब प्रभु को न देख पता था लेकिन जब गुरु ने ज्ञान का दीपक मेरे भीतर प्रकाशित किया तब अज्ञान का सब अंधकार मिल गया-ज्ञान की ज्योति से अहंकार जाता रहा और ज्ञान के आलोक में प्रभु को पाया।
44. जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय,
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि अगर हमारा मन शीतल है तो इस संसार में हमारा कोई बैरी नहीं हो सकता। यदि अहंकार छोड़ दें तो हर कोई हम पर दया करने को तैयार हो जाता है।
45. मन ही मनोरथ छांडी दे, तेरा किया न होई,
पानी में घिव निकसे, तो रुखा खाए न कोई।
अर्थ – इस दोहे में कहा गया है कि मनुष्य मात्र को समझाते हुए कबीर कहते हैं कि मन की इच्छाएँ छोड़ दो, उन्हें तुम अपने बूते पर पूर्ण नहीं कर सकते। अगर पानी से घी निकल आए तो रुखी रोटी कोई नहीं खाएगा।
46. साधू भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं,
धन का भूखा जी फिरै, सो तो साधू नाहिं।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि साधू हमेशा करुणा और प्रेम का भूखा होता है कभी भी धन का भूखा नहीं होता और जो धन का भूखा होता है वह साधू नहीं हो सकता।
47. कबीर सो धन संचे, जो आगे को होय,
सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्यो कोय।
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि उस धन को एकत्रित करो जो भविष्य में काम आए। सर पर धन की गठरी बांध कर ले जाते तो किसी को नहीं देखा।
48. तन को जोगी सब करें, मन को बिरला कोई,
सब सिद्धि सहजे पाइए, जे मन जोगी होई।
अर्थ – शरीर में भगवे वस्त्र धारण करना सरल है लेकिन मन को योगी बनाना बिरले ही व्यक्तियों का काम है। अगर मन योगी हो जाए तो सारी सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं।
49. कुटिल वचन सबतें बुरा, जारि करै सब छार,
साधू वचन जल रूप है, बरसै अमृत धार।
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि बुरे वचन विष के समान होते हैं और अच्छे वचन अमृत के समान लगते हैं।
50. जैसा भोजन खाइए, तैसा ही मन होए,
जैसा पानी पीजिए, तैसी वाणी होए।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि हम जैसा भोजन करते हैं वैसा ही हमारा मन हो जाता है और हम जैसा पानी पीते हैं वैसी ही हमारी वाणी हो जाती है।
51. कबीर तन पंछी भया, जहाँ मन तहां उडी जाई,
जो जैसी संगती कर, सो तैसा ही फल पाई।
अर्थ – कबीर जी कहते हैं कि संसारी व्यक्ति का शरीर पक्षी बन गया है और जहाँ उसका मन होता है, शरीर उड़कर वहीँ पहुंच जाता है। सच है कि जो जैसा साथ करता है, वह वैसा ही फल पाता है।
52. दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।
अर्थ – यह किसी भी मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह दूसरों के दोष देख कर हंसता है, तब उसे अपने दोष याद नहीं आते जिनका न आदि है न अंत।
53. जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि जो कोशिश करते हैं वे कुछ-न-कुछ वैसे पा ही लेते हैं जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ लेकर आता है। लेकिन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के डर से किनारे पर ही बैठेरह जाते हैं और कुछ नहीं पाते।
54. अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि जिस प्रकार न तो अधिक वर्षा होना अच्छी बात है और न ही अधिक धूप उसी तरह से जीवन में न तो ज्यादा बोलना अच्छा है न ही अधिक चुप रहना ठीक है।
55. निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय,
बिना पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास जी ने बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही है कि उन लोगों के लिए जो दिन रत आपकी निंदा करते हैं और आपकी बुराइयां बताते हैं। कबीरदास जी कहते हैं कि ऐसे लोगों को हमें अपने करीब रखना चाहिए क्योंकि वे तो बिना पानी, बिना साबुन हमें हमारी नकारात्मक आदतों को बताते हैं जिससे हम उन नकारात्मक विचारों को सुधार कर सकारात्मक बना सकते हैं।
56. दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि इस दोहे में मनुष्य की तुलना पेड़ से करते हुए जीवन का मोल समझा रहे हैं और इस संसार में मनुष्य का जन्म मुश्किल से मिलता है, यह मानव शरीर उसी प्रकार बार-बार नहीं मिलता जैसे किसिस वृक्ष से पत्ते झड़ जाए तो दुबारा दाल पर नहीं लगते।
57. हिन्दू कहे मोहि राम पियारा, तुर्क कहे रहमाना,
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मर्म न कोउ जाना।
अर्थ – कबीर जी कहते हैं कि हिन्दू राम के भक्त हैं और तुर्क को रहमान प्यारा है। इसी बात पर दोनों लड़-लड़कर मौत के मुंह में जा पहुंचे, तब भी दोनों में से कोई सच को न जान पाया।
58. मांगन मरण समान है, मति मांगो कोई भीख,
मांगन ते मारना भला, यह सतगुरु की सीख।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि माँगना मरने के समान है इसलिए कभी भी किसी से कुछ मत मांगो।
59. कहत-सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझ्या मन,
कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन।
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि कहते-सुनते सब दिन निकल गए लेकिन यह मन उलझ कर न सुलझ पाया। कबीरदास जी कहते हैं कि अब भी यह मन होश में नहीं आता। आज भी इसकी अवस्था पहले दिन के समान ही है।
60. कबीर लहरि समंद की, मोती बिखरे आई,
बगुला भेद न जानई, हंसा चुनी-चुनी खाई।
अर्थ – कबीर कहते हैं कि समुद्र की लहर में मोती आकर बिखर गए। बगुला उनका भेद नहीं जानता, लेकिन हंस उन्हें चुन-चुनकर खा रहा है। इसका अर्थ यह है कि किसी भी वस्तु का महत्व जानकार ही जानता है।
61. जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई,
जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई।
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास कहते हैं कि जब गुण को परखने वाला गाहक मिल जाता है तो गुण की कीमत होती है लेकिन जब ऐसा गाहक नहीं मिलता तब गुण कौड़ी के भाव चला जाता है।
62. कबीर कहा गरबियो, काल गहे कर केस,
ना जाने कहाँ मारिसी, कै घर कै परदेस।
अर्थ – कबीरदास कहते हैं कि हे मानव! तू क्या गर्व करता है? काल अपने हाथों में तेरे केश पकड़े हुए हैं। मालूम नहीं, वह घर या प्रदेश में, कहा पर तुझे मार डाले।
63. पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात,
एक दिन छिप जाएगा, ज्यों तारा परभात।
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास जी का कथन है कि जिस तरह पानी के बुलबुले, इसी तरह मनुष्य का शरीर क्षण भंगुर है जैसे प्रभात होते ही तारे छिप जाते हैं वैसे ही ये देह भी एक दिन नष्ट हो जाएगी।
64. हाड़ जलै ज्यूँ लाकडी, केस जलै ज्यूँ घास,
सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि यह नश्वर मानव देह अंत समय में लकड़ी की तरह जलती है और केश घास की तरह जल उठते हैं। सम्पूर्ण शरीर को इस प्रकार जलता देश, इस अंत पर कबीरदास जी का मन उदासी से भर जाता है।
65. जो उग्या सो अन्तबै, फूल्या सो कुमलाहीं,
जो चिनिया सो ढही पड़े, जो आया सो जाहीं।
अर्थ – कबीर जी कहते हैं कि इस संसार का नियम यही है कि जो उदय हुआ है वह अस्त होगा। जो विकसित हुआ है वह मुरझा जाएगा। जो चिना गया है वह गिर पड़ेगा और जो आया है वह जाएगा।
66. मक्खी गुड में गडी रहे, पंख रहे लिपटाये,
हाथ मले और सिर ढूंढे, लालच बुरी बलाए।
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास जी ने लालच कितनी बुरी बला है उसके बारे में बताया है। वे कहते हैं मक्खी गुड खाने के लालच से झट से जाकर गुड में बैठ जाती है लेकिन उसे लालच मन की वजह से यह भी याद नहीं रहता है कि गुड में वह चिपक भी सकती है और बैठते ही वह चिपक जाती है और मर जाती है। उसी प्रकार लालच मनुष्य को भी किस तरह बर्बाद कर सकती है वह सोचना भी मुश्किल है।
67. कबीर संगत साधू की, नित प्रति कीजै जाए,
दुरमति दूर बहावासी, देशी सुमति बताए।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि इस दोहे में सकारात्मक विचारों के पास रहने से किस प्रकार जीवन में सकारात्मक सोच और विचार हम ला सकते हैं उसको समझाया है। प्रतिदिन जाकर संतों, विद्वानों की संगत करो, इससे तुम्हारी दुर्बुद्वि, और नकारात्मक सोच दूर हो जाएगी और संतों से अच्छे विचार भी सिखने जानने को मिलेगा।
68. कनक-कनक तै सौ गुनी मादकता अधिकाय,
वा खाए बौराए जग, या देखे बौराए।
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास जी बार-बार कनक शब्द का उच्चारण करके उसके दो अर्थ समझा रहे हैं। पहले कनक का अर्थ धतुरा और दूसरे कनक का अर्थ स्वर्ण बताते हुए कबीरदास जी कह रहे हैं कि जिस तरह मनुष्य धतुरा को खाने पर भ्रमित/पागल सा हो जाता है उसी तरह स्वर्ण को देखने पर भी भ्रमित ही जाता है।
69. झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद,
खलक चबैना काल का, कुछ मुंह में कुछ गोद।
अर्थ – कबीर जी का कहना है कि हे जीव! तू झूठे सुख को सुख कहता है और मन में प्रसन्न होता है? देख यह सारा संसार मृत्यु के लिए उस भोजन के समान है जो कुछ तो उसके मुंह में है और कुछ गोद में खाने के लिए रखा है।
70. ऐसा कोई न मिले, हमको दे उपदेस,
भौ सागर में डूबता, कर गहि काढै केसकाढै केस।
अर्थ – कबीर संसारी जनों के लिए दुखित होते हुए कहते हैं कि इन्हें कोई ऐसा पथ प्रदर्शक न मिला जो उपदेश देता और संसार सागर में डूबते हुए इन प्राणियों को अपने हाथों से केश पकड़कर निकाल लेता।
71. संत न छाडै संतई, जो कोटिक मिले असंत,
चंदन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत।
अर्थ – कबीर जी कहते हैं कि सज्जन को चाहे करोड़ों दुष्ट मिलें फिर भी वह अपने भले स्वभाव को नहीं छोड़ता। चंदन के पेड़ से सांप लिपटे रहते हैं लेकिन वह अपनी शीतलता नहीं छोड़ता।
72. ते दिन गए अकारथ ही, संगत भई न संग,
प्रेम बिना पशु जीवन, भक्ति बिना भगवंत।
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि जिसने कभी अच्छे लोगों की संगति नहीं की और न ही कोई अच्छा काम किया उसका तो जिंदगी का सारा गुजारा हुआ समय ही बेकार हो गया। जिसके मन में दूसरों के लिए प्रेम नहीं है वह इंसान पशु के समान है और जिसके मन में सच्ची भक्ति नहीं है उसके ह्रदय में कभी अच्छाई या ईश्वर का वास नहीं होता।
73. कबीरा सोई पीर है, जो जाने पर पीर,
जो पर पीर न जानही, सो का पीर में पीर।
अर्थ – कबीर जी का कहना है कि जो इंसान दूसरों की पीड़ा को समझता है वही इंसान है। जो दूसरों के कष्ट को ही नहीं समझ पाता, वह ऐसा इंसान भला किस काम का!
74. कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हंसे हम रोए,
ऐसी करनी कर चलो, हम हंसे जग रोए।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि जब हम पैदा हुए थे तब सब खुश थे और हम रो रहे थे। पर कुछ ऐसा काम जिंदगी रहते करके जाओ कि जब हम मरें तो सब रोयें और हम हंसे।
75. यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान,
शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान।
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि यह जो शरीर है वो विष से भरा हुआ है और गुरु अमृत की खान है। अगर अपना सिर देने के बदले में आपको कोई सच्चा गुरु मिले तो यह सौदा भी बहुत सस्ता है।
76. सब धरती काजग करू, लेखनी सब वनराज,
सात समुद्र की मसि करूं, गुरु गुण लिखा न जाए।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि अगर मैं इस पूरी धरती के बराबर बड़ा कागज बनाऊं और दुनिया के सभी पेड़ों की कलम बना लूँ और सातों समुद्रों के बराबर स्याही बना लूँ तब भी गुरु के गुणों को लिखना संभव नहीं है।
77. मलिन आवत देख के, कलियन कहे पुकार,
फूले-फूले चुन लिए, कलि हमारी बार।
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि मालिन को आते देखकर बगीचे की कलियाँ आपस में बातें करती हैं कि आज मालिन ने फूलों को तोड़ लिया और कल हमारी बारी आ जाएगी। यानि आज आप जवान हैं कल आप भी बूढ़े हो जाएंगे और एक दिन मिट्टी में मिल जाओगे। आज की कली, कल फूल बनेगी।
78. ज्यों तिल माहि तेल है, ज्यों चकमक में आग,
तेरा साईं तुझ ही में है, जाग सके तो जाग।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि जैसे तिल के अंदर तेल होता है और आग के अंदर रोशनी होती है ठीक वैसे ही हमारा ईश्वर हमारे अंदर ही विद्यमान है, अगर ढूंढ सको तो ढूंढ लो।
79. जहाँ दया तहा धर्म है, जहाँ लोभ वहां पाप,
जहाँ क्रोध तहां काल है, जहाँ क्षमा वहां आप।
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि जहाँ दया है वहीं धर्म है और जहाँ लोभ है वहां पाप है, और जहाँ क्रोध है वहां सर्वनाश है और जहाँ क्षमा है वहां ईश्वर का वास होता है।
80. जो घट प्रेम न संचारे, जो घट जान सामान,
जैसे खाल लुहार की, साँस लेट बिनु प्राण।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि जिस इंसान के अंदर दूसरों के प्रति प्रेम की भावना नहीं है वो इंसान पशु के बराबर है।
81. जल में बसे कमोदनी, चंदा बसे आकाश,
जो है जा को भावना सो ताहि के पास।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि कमल जल में खिलता है और चंद्रमा आकाश में रहता है लेकिन चंद्रमा का प्रतिबिंब जल में चमकता है तो कबीरदास जी कहते हैं कि कमल और चंद्रमा में इतनी दूरी होने के बाद भी दोनों कितने पास हैं। जल में चंद्रमा का प्रतिबिंब ऐसा लगता है जैसे चंद्रमा खुद कमल के पास आ गया हो। वैसे ही जब कोई इंसान ईश्वर से प्रेम करता है वो ईश्वर स्वंय चलकर उसके पास आते हैं।
82. तीरथ गए से एक फल, संत मिले फल चार,
सतगुरु मिले अनेक फल, कहे कबीर विचार।
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि तीर्थ करने से एक पुण्य मिलता है लेकिन संतो की संगति से 4 पुण्य मिलते हैं। और सच्चे गुरु को पा लेने से जीवन में अनेक पुण्य मिल जाते हैं।
83. प्रेम न बारी उपजे, प्रेम न हात बिकाए,
राजा प्रजा जो ही रुचे, सिस दे ही ले जाए।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि प्रेम कहीं खेतों में नहीं उगता और न ही प्रेम कहीं बाजार में बिकता है। जिसको प्रेम चाहिए उसे अपना शीश त्यागना होगा।
84. जिन घर साधू न पूजिए, घर की सेवा नाही,
ते घर मरघट जानिए, भूत बसे तिन माही।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि जिस घर में साधू और सत्य की पूजा नहीं होती, उस घर में पाप बसता है। ऐसा घर तो मरघट के समान है जहाँ दिन में ही भुत-प्रेत बसते हैं।
85. प्रेम पियाला जो पिए, सिस दक्षिणा देय,
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि जिसका ईश्वर प्रेम और भक्ति का प्रेम पाना है उसे अपने शीश को त्यागना होगा। लालची इंसान अपने शीश को त्याग नहीं सकता लेकिन प्रेम पाने की उम्मीद रखता है।
86. नहीं शीतल है चंद्रमा, हिम नहीं शीतल होय,
कबीर शीतल संत जन, नाम सनेही होय।
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि चंद्रमा भी उतना शीतल नहीं है और हिम भी उतना शीतल नहीं होता जितना शीतल सज्जन पुरुष है। सज्जन पुरुष मन से शीतल और सभी से स्नेह करने वाले होते हैं।
87. राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय,
जो सुख साधू संग में, सो बैकुंठ न होय।
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि जब मृत्यु का समय नजदीक आया और राम के दूतों का बुलावा आया तो कबीरदास जी रो पड़े क्योंकि जो आनन्द संत और सज्जनों की संगति में है उतना आनन्द तो स्वर्ग में भी नहीं होगा।
88. शीलवंत सबसे बड़ा सब रतनन की खान,
तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि शांत और शीलता सबसे बड़ा गुण है और यह दुनिया के सभी रत्नों से महंगा रत्न है। जिसके पास शीलता है उसके पास मानों तीनों लोकों की संपत्ति है।
89. ज्ञान रतन का जतन कर, माटी का संसार,
हाय कबीरा फिर गया, फीका है संसार।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि यह संसार तो माटी का है, आपको ज्ञान पाने की कोशिश करनी चाहिए नहीं तो मृत्यु के बाद जीवन और फिर जीवन के बाद मृत्यु यही क्रम चलता रहेगा।
90. आये हैं तो जाएंगे, राजा रंक फकीर,
इक सिंहासन चढ़ी चले, इक बंधे जंजीर।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि जो इस दुनिया में आया है उसे एक दिन जरुर जाना है। चाहे राजा हो या फकीर, अंत समय यमदूत सबको एक ही जंजीर में बांध कर ले जाएगा।
91. ऊँचे कुल का जनमिया, करनी ऊँची न होय,
सुवर्ण कलश सुरा भरा, साधू निंदा सोय।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि ऊंचे कुल में जन्म तो ले लिया लेकिन अगर कर्म ऊँचे नहीं हैं तो यह तो वही बात हुई जैसे सोने के लोटे में झर भरा हो, इसकी चारों तरफ निंदा हो होती है।
92. कामी क्रोधी लालची, इनसे भक्ति न होय,
भक्ति करे कोई सुरमा, जाति बरन कुल खोए।
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि कामी, क्रोधी और लालची, ऐसे व्यक्तियों से भक्ति नहीं हो पाती। भक्ति तो कोई सूरमा ही कर सकता है जो अपनी जाति, कुल, अहंकार सबका त्याग कर देता है।
93. कागा का को धन हरे, कोयल का को देय,
मीठे वचन सुना के, जग अपना कर लेय।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि कौआ किसी का धन नहीं चुराता लेकिन फिर भी कौआ लोगों को पसंद नहीं होता। वहीं कोयल किसी को धन नहीं देती लेकिन सबको अच्छी लगती है। यह फर्क है बोली का – कोयल मीठी बोली से सबके मन को हर लेती है।
94. लुट सके तो लुट ले, हरी नाम की लूट,
अंत समय पछताएगा, जब प्राण जाएगे छूट।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि यह संसार ज्ञान से भरा पड़ा है, हर जगह राम बसे हैं। अभी समय है राम की भक्ति करो, नहीं तो जब अंत समय आएगा तो पछताना पड़ेगा।
95. कहै कबीर देय तू, जब लग तेरी देह,
देह खेह होए जाएगी, कौन कहेगा देह।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि जैसे आँख के भीतर पुतली है ठीक उसी तरह ईश्वर हमारे भीतर बसा है। मुर्ख लोग नहीं जानते और बाहर ही ईश्वर को तलाशते रहते हैं।
96. देह खेह होए जाएगी, कौन कहेगा देह,
निश्चय कर उपकार की, जीवन का फन येह।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि मरने के बाद तुमसे कौन देने को कहेगा? अतः निश्चित पूर्वक परोपकार करो, यही जीवन का फल है।
97. या दुनिया दो रोज की, मत कर यासो हेत,
गुरु चरनन चित लाइए, जो पुराण सुख हेत।
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार का झमेला दो दिन का है अतः इससे मोह संबंध न जोड़ो। सद्गुरु के चरणों में मन लगाओ, जो पूर्ण सुखज देने वाले हैं।
98. गाँठी होए सो हाथ कर, हाथ होए सो देह,
आगे हाट न बानिया, लेना होए सो लेह।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि जो गांठ में बांध रखा है, उसे हाथ में ला, और जो हाथ में हो उसे परोपकार में लगा। नर शरीर के बाद इतर खानियों में बाजार-व्यापारी कोई नहीं है, लेना हो सो यही ले लो।
99. धर्म किए धन न घटे, नदी न घट्ट नीर,
अपनी आँखों देखिले, यों कथि कहहिं कबीर।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि धर्म करने से धन नहीं घटना, देखो नदी हमेशा बहती रहती है, लेकिन उसका पानी घटना नहीं। धर्म करके खुद देख लो।
100. चलती चक्की देखकर, दिया कबीरा रोये,
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए।
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि चलती चक्की को देखकर कबीरदास जी के आँसू निकल आते हैं और वो कहते हैं कि चक्की के 2 पाटों के बिच में कुछ साबुत नहीं बचता।
101. जब तू आया जगत में, लोग हंसे तू रोय,
ऐसी करनी ना करी, पाछे हंसे सब कोय।
102. ज्यों नैनों में पुतली, त्यों मालिक घट माहिं,
मूरख लोग न जानहिं, बाहिर ढूंढन जाहिं।
103. कवि गर्व न कीजिए, उंचा देखि आवास,
काल परों भूईं लेटना, ऊपर जमसी घास।
104. चिंता ऐसी डाकिनी, काट कलेजा खाए,
वैद बेचारा क्या करे, कहा तक दवा लगाए।
105. कहते को कही जान दे, गुरु की सीख तू लेय,
साकट जन औश्वान को, फेरि जवाब न देय।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि उल्टी-पल्टी बात बकने वाले को बकते जाने दो, तू गुरु की ही शिक्षा धारण कर। साकट और कुत्तों को उलट कर उत्तर न दो।
106. कबीर तहाँ न जाइए, जहाँ जो कुल को हेत,
साधुपनो जाने नहीं, नाम बाप को लेत।
अर्थ – कबीरदास जी भी कहते हैं कि गुरु कबीर साधुओं से कहते हीन कि वहां पर मत जाओ, जहाँ पर पूर्व के कुल-कुटुंब का संबंध हो। क्योंकि वे लोग आपकी साधुता के महत्व को नहीं जानेंगे, सिर्फ शारीरिक पिता का नाम लेंगे ‘अमुक का लड़का आया है’।
107. कबीर तहां न जाइए, जहाँ सिद्ध को गाँव,
स्वामी कहै न बैठना, फिर-फिर पुछै नाँव।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि अपने को सर्वोपरि मानने वाले अभिमानी सिद्धों के स्थान पर भी मत जाओ। क्योंकि स्वामीजी ठीक से बैठने तक की बात नहीं कहेंगे, बारम्बार नाम पूछते रहेंगे।
108. इष्ट मिले अरु मन मिले, मिले सकल रस रीति,
कहैं कबीर तहँ जाइए, यह संतन की प्रीति।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि उपास्य, उपासना पद्धति, संपूर्ण रीति-रिवाज और मन जहाँ पर मिले, वहीं पर जाना संतों को प्रियकर होना चाहिए।
109. कबीर संगी साधू का, दल आया भरपूर,
इंद्रिन को तब बांधीया, या तन किया धर।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि संतों के साधी विवेक-वैराग्य, दया,क्षमा, समता आदि का दल जब परिपूर्ण रूप से ह्रदय में आया। तब संतों ने इंद्रियों को रोककर शरीर की व्याधियों को धूलकर दिया यानि तन-मन को वश में कर लिया।
110. गारी मोटा ज्ञान, जो रंचक उर में जरै,
कोटी सँवारे काम, बैरि उलटि पायन परै,
कोटि सँवारे काम, बैरि उलटि पायन परै,
गारी सो क्या हान, हीरदै जो यह ज्ञान धरै।
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि अगर अपने ह्रदय में थोड़ी भी सहन शक्ति हो, मिली हुई गली भारी ज्ञान है। सहन करने से करोड़ों काम सुधर जाते हैं। शत्रु आकर पैरों में पड़ता है। अगर ज्ञान ह्रदय में आ जाए तो मिली हुई गाली से अपनी क्या हानि है?
111. गारी ही से उपजै, कलह कष्ट औ मीच,
हारि चले सो संत है, लागि मरै सो नीच।
अर्थ – कबीरदास जी का कहना है कि गाली से झगड़ा संताप और मरने मारने तक की बात आ जाती है। इससे अपनी हार मानकर जो विरक्त हो चलता है, वह संत है और जो व्यक्ति मरता है, वह नीच है।
112. बहते को मत बहन दो, कर गहि एचहु ठौर,
कह्यो सुन्यो मानै नहीं, शब्द कहो दुई और।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि बहते हुए को मत बहने दो, हाथ पकड़कर उसको मानवता की भूमिका पर निकाल लो। अगर वह कहा-सुना न माने तो भी निर्णय के दो वचन और सुना दो।
113. मन राजा नायक भया, टांडा लादा जाय,
है है है है है रही, पूँजी गई बिलाय।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि मन राजा बड़ा भारी व्यापारी बना और विषयों का टांडा जाकर लड़ लिया। भोगों-ऐश्वर्यों में लाभ है, लोग कह रहे हैं लेकिन इसमें पड़कर मानवता की पूंजी भी विनष्ट हो जाती है।
114. बनिजारे के बैल ज्यों, भरमि फिर्यो चहुँदेश,
खांड लादी भुस खात है, बिन सतगुरु उपदेश।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि सौदागरों के बैल जैसे पीठ पर शक्कर लाड कर भी भूसा खाते हुए चारों और फेरि करते हैं। इस तरह यथार्थ सदगुरु के उपदेश बिना ज्ञान कहते हुए भी विषय प्रपंचों में उलझे हुए मनुष्य नष्ट होते हैं।
115. जीवत कोय समुझै नहीं, मुवा न कह संदेश,
तन-मन से परिचय नहीं, ताको क्या उपदेश।
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि शरीर रहते हुए तो कोई यथार्थ ज्ञान की बात समझता नहीं और मार जाने पर इन्हें कौन उपदेश करने जाएगा। जिसे अपने तन-मन की ही सुधि-बुधि नहीं है, उसको क्या उपदेश दिया?
116. जिही जिवरी से जाग बंधा, तु जनी बँधे कबीर,
जासी आटा लौन ज्यों, सों समान शरीर।
अर्थ – कबीरदास जी का कहना है कि कि जिस भ्रम और मोह की रस्सी से जगत के जीव बंधे हैं। हे कल्याण इच्छुक! तू उसमें मत बंध। नमक के बिना जैसे आटा फीका हो जाता है वैसे सोने के समान तुम्हारा उत्तम नर शरीर भजन बिना व्यर्थ जा रहा है।
117. हरिया जांणे रुखड़ा, उस पाणी का नेह,
सूका काठ न जानई, कबहूँ बरसा मेंह।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि पानी के स्नेह को हर पेड़ ही जानता है। सुखा काठ-लकड़ी क्या जाने कि कब पानी बरसा? यानि सह्रदय ही प्रेम भाव को समझता है। निर्मम मन इस भावना को क्या जाने?
118. झिरमिर-झिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर मेंह,
माटी गलि सैजल भई, पांहन बोही तेह।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि बदल पत्थर के ऊपर झिरमिर करके बरसने लगे । इससे मिट्टी तो भीगकर सजल हो गई लेकिन पत्थर वैसा का वैसा बना रहा।
119. कबीर थोडा जीवना, मांडे बहुत मंडाण,
कबीर थोडा जीवना, मांडे बहुत मंडाण।
अर्थ – इस दोहे में बताया गया है कि थोडा सा जीवन है, उसके लिए मनुष्य अनेक प्रकार के प्रबंध करता है। चाहे राजा हो या निर्धन चाहे बादशाह सब खड़े-खड़े ही नष्ट हो गए।
120. इक दिन ऐसा होइगा, सब सूं पड़े बिछोह,
राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होय।
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि एक दिन ऐसा जरुर आएगा जब सबसे बिछुड़ना पड़ेगा। हे छत्रपतियों! तुम अभी से सावधान क्यों नहीं हो जाते!
121. कबीर प्रेम न चक्खिया, चक्खि न लिया साव,
सूने घर का पाहुना, ज्यूँ आया त्यूं जाव।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि जिस व्यक्ति ने प्रेम को चखा नहीं और चख कर स्वाद नहीं लिया, वह उस अतिथि के समान है जो सुने, निर्जन घर में जैसा आता है वैसा ही चला भी जाता है, कुछ प्राप्त नहीं कर पाता।
122. मान, महातम, प्रेम रस, गरवा तण गुण नेह,
ए सबही अहला गया, जबहीं कह्या कुछ देह।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि मान, महत्व, प्रेम रस, गौरव गुण और स्नेह सब बाढ़ में बह जाते हैं जब किसी मनुष्य से कुछ देने के लिए कहा जाता है।
123. जाता है सो जाण दे, तेरी दसा न जाई,
खेवटिया की नांव ज्यूँ, घने मिलेंगे आई।
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि जो जाता है उसे जाने दो। तुम अपनी स्थिति को, दशा को न जाने दो। अगर तुम अपने स्वरूप में बने रहे तो केवट की नाव की तरह अनेक व्यक्ति आकर तुमसे मिलेंगे।
124. यह तन काचा कुंभ है, लिया फिरे थ साथ,
ढबका लागा फुटिगा, कुछ न आया हाथ।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि यह शरीर कच्चा घडा है जिसे तू साथ लिए घूमता फिरता था। जरा-सी चोट लगते ही यह फूट गया। कुछ भी हाथ नहीं आया।
125. मैं मैं बड़ी बलाय है, सकै तो निकसी भागि,
कब लग राखौ हे सखी, रुई लपेटी आगि।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि अहंकार बहुत बुरी वस्तु है। हो सकता है तो इससे निकलकर भाग जाओ। मित्र रुई में लिपटी इस आग, अहंकार को मैं कब तक अपने पास रखूं?
126. कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आई,
अंतरि भीगी आतमा, हरी भई बनराई।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि प्रेम का बादल मेरे ऊपर आकर बरस पड़ा, जिससे अंतरात्मा तक भीग गई, आस-पास पूरा परिवेश हरा-भरा हो गया, खुशहाल हो गया। यह प्रेम का अपूर्व प्रभाव है! हम इसी प्रेम में क्यों नहीं जीते!
127. जिहि घट प्रेम न प्रीति रस, पुनि रसना नहीं नाम,
ते नर या संसार में, उपजी भए बेकाम।
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि जिनके दिल में न तो पप्रीति है और न प्रेम का स्वाद, जिनकी जीभ पर राम का नाम नहीं रहता वे मनुष्य इस संसार में उत्पन्न होकर व्यर्थ हैं। प्रेम जीवन की सार्थकता है। प्रेम रस में डूबे रहना जीवन का सार है।
128. लंबा मारग दूरि घर, बिकट पंथ बहु मार,
कहौ संतों क्यूँ पाइए, दुर्लभ हरि दीदार।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि घर दूर है मार्ग लंबा है, रास्ता भयंकर है और उसमें अनेक पटक चोर-ठग हैं। हे सज्जनों! कहो, भगवान का दुर्लभ दर्शन कैसे प्राप्त हो? संसार में जीवन कठिन है, अनेक बाधाएं हैं, विपत्तियाँ हैं उनमें पड़कर हम भरमाए रहते हैं बहुत से आकर्षण हमें अपनी तरह खींचते रहते हैं, हम अपना लक्ष्य भूलते रहते हैं, अपनी पूंजी गंवाते रहते हैं।
129. इस तन का दीवा करों, बाती मेल्यूं जीव,
लोही सिनचु तेल ज्यूँ, कब मुख देखों पीव।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि इस शरीर को दीपक बना लूँ, उसमें प्राणों की बत्ती डालूँ और खून से तेल की तरह सींचूं, इस तरह दीपक जला कर मैं अपने प्रिय के मुख का दर्शन कब कर पाउँगा? ईश्वर से लौ लगाना उसे पाने की छह करना उसकी भक्ति में तन-मन को लगाना एक साधना है, तपस्या है जिसे कोई-कोई विरला ही कर पता है!
130. नैना अंतर आव तू, ज्यूँ हौं नैन झंपेउ,
न हौं देखूं और को न तुझे देखन देऊँ।
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि हे प्रिय! तुम इन दो नेत्रों की राह से मेरे अंदर आ जाओ और फिर मैं अपने इन नेत्रों को बंद कर लूँ! फिर न तो मैं किसी दुसरे को देखूं और न ही किसी और को तुमने देखने दूँ!
131. कबीर रेख सिंदूर की काजल दिया न जाई,
नैनूं रमैया रमि रहा दूजा कहाँ समाई।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि जहाँ सिंदूर की रेखा है वहां काजल नहीं दिया जा सकता। जब नेत्रों में राम विराज रहे हैं तो वहां कोई अन्य कैसे निवास कर सकता है?
132. कबीर सीप समंद की, रटे पियास पियास,
समुदहि तिनका करि गिने, स्वाति बूंद की आस।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि समुद्र की सीपी प्यास-प्यास रटती रहती हैं। स्वाती नक्षत्र की बूंद की आशा लिए हुए समुद्र की अपार जलराशि को तिनके के बराबर समझती हैहमारे मन में जो पाने की ललक है जिसे पाने की लगन है, उसके बिना सब निस्सार है।
133. सातों सबद जू बाजते घरि-घरि होते राग,
ते मंदिर खाली परे बैसन लागे काग।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि जिन घरों में सप्त स्वर गूंजते हैं, पल-पल उत्सव मनाए जाते थे, वह घर भी अब खली पड़े हैं, उनपर कौए बैठने लगे है। हमेशा एक सा समय तो नहीं र्ह्जता! जहन खुशियाँ थीं वहां गम छा जाता है, जहाँ हर्ष था वहां हर्ष था वहां विषद देता डाल सकता है। यह इस संसार में होता है!
134. जांमण मरण बिचारि करि कूड़े काम निबारि,
जिनि पंथूँ तुझ चालणा सोई पंथ संवारि।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि जन्म और मरण का विचार करके, बुरे कर्मों को छोड़ दे। जिस मार्ग पर तुझे चलना है उसी मार्ग का स्मरण कर उसे ही याद रख, उसे ही संवर सुंदर बना।
135. बिन रखवाले बाहिरा चिड़िये खाया खेत,
आधा परधा उबरै, चेती सकै तो चेत।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि रखवाले के बिना बाहर से चिड़ियों ने खेत खा लिया। कुछ खेत अब भी बचा है अगर सावधान हो सकते हो तो हो जाओ और उसे बचा लो! जीवन में असावधानी की वजह से इन्सान बहुत कुछ गंवा देता है उसे खबर भी नहीं लगती और निक्सन हो चुका होता है अगर हम सावधानी बरतें तो कितने नुकसान से बच सकते हैं! इसलिए जागरूकता होना है हर इंसान को जलाने की सावधानी बरतते तो दिल्ली में भयंकर वायु प्रदुषण से बचते लेकिन अब पछताए हॉट क्या जब चिड़िया चुग गई खेत!
136. कबीर देवल ढहि पड्या ईंट भई सेंवार,
करी चिजारा सौं प्रीतड़ी ज्यूँ ढहे न दूजी बार।
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि शरीर रूपी देवालय नष्ट हो गया, उसकी ईंट-ईंट शैवाल यानि काई में बदल कई। इस देवालय को बनाने वाले प्रभु से प्रेम कर जिससे यह देवालय दूसरी बार नष्ट न हो।
137. कबीर मंदिर लाख का, जड़ियां हीरे लालि,
दिवस चारि का पेषणा, बिनस जाएगा कालि।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि यह शरीर लाख का बना मंदिर है जिसमें हीरे और लाल जड़े हुए हैं। यह चार दिनका खिलौना है, कल ही नष्ट हो जाएगा। शरीर नश्वर है जतन करके मेहनत करके उसे सजाते हैं तब उसी क्षण भंगुरता को भूल जाते हैं लेकिन सच तो इतना ही है कि देह किसी कच्चे खिलौने की तरह टूट-फूट जाती है, अचानक ऐसे कि हम जान भी नहीं पाते!
138. कबीर यह तनु जात है सकै तो लेहू बहोरि,
नंगे हाथूँ ते गए जिनके लाख करोडि।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि यह शरीर नष्ट होने वाला है। हो सके तो अभी भी संभल जाओ, इसे संभाल लो! जिनके पास लाखों करोड़ों की संपत्ति थी वे भी यहाँ से खली हाथ ही गए हैं इसलिए जीते जी धन संपत्ति जोड़ने में ही न लगे रहो, कुछ सार्थक भी कर लो! जीवन को कोई दिशा दे लो, कुछ भले काम कर लो!
139. हू तन तो सब बन भया करम भए कुहांडि,
आप आप कूँ काटि है, कहै कबीर बिचारि।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि यह शरीर तो सब जंगल के समान है, हमारे कर्म ही कुल्हाड़ी के समान हैं। इस तरह हम खुद अपने आपको काट रहे हैं यह बात कबीर सोच-विचार कर कहते हैं।
140. तेरा संगी कोई नहीं सब स्वारथ बंधी लोई,
मन परतीति न उपजै, जीव बेसास न होई।
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि तेरा साथी कोई भी नहीं है। सब मनुष्य स्वार्थ में बंधे हुए हैं, जब तक इस बात की प्रतीति, भरोसा, मन में उत्पन्न नहीं होता तब तक आत्मा के प्रति विश्वास जाग्रत नहीं होता अथार्त वास्तविकता का ज्ञान न होने से मनुष्य संसार में रमा रहता है जब संसार के सच को जान लेता है। इस स्वार्थमय सृष्टि को समझ लेता है, तब ही अंतरात्मा की तरफ उन्मुख होता है अंदर झांकता है!
141. मैं मैं मेरी जिनी करै, मेरी सूल बिनास,
मेरी पग का पैष णा मेरी गल की पास।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि ममता और अहंकार में मत फंसो और बन्धो, यह मेरा है कि रट मत लगाओ, यह विनाश के मूल हैं, जड़ हैं, कारण हैं, ममता पैरों की बेडी है और गले की फांसी है।
142. कबीर नाव जर्जरी कूड़े खेवनहार,
हलके-हलके तिरि गए बड़े तिनि सर भार।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि जीवन की नौका टूटी फूटी है, जर्जर है उसे खेने वाले मुर्ख हैं जिनके सर पर बोझ है वे संसार सागर में डूब जाते हैं। संसारी होकर रह जाते हैं दुनिया के धंधों से उबर नहीं पाते। उसी में उलझकर रह जाते हैं लेकिन जो इनसे मुक्त हैं , हल्के हैं वे टार जाते हैं पार लग जाते हैं भव सागर में डूबने से बच जाते हैं।
143. मन जाणे सब बात जांणत ही औगुन करै,
काहे की कुसलात कर दीपक कूँवै पड़े।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि मन सभी बातों को जानता है, जानता हुआ भी अवगुणों में फंस जाता है जो दीपक हाथ में पकड़े हुए भी कुएं में गिर पड़े उसकी कुशल कैसी?
144. हिरदा भीतर आरसी मुख देखा नहीं जाई,
मुख तो तौ परि देखिए जे मन की दुविधा जाई।
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि ह्रदय के भीतर ही दर्पण है लेकिन वासनाओं की मलिनता की वजह से मुख का स्वरूप दिखाई ही नहीं देता मुख या अपना चेहरा या वास्तविक स्वरूप तो तभी दिखाई पड़ सकता है जब मन का संशय मिल जाए!
145. करता था तो क्यूँ रहया, जब करि क्यूँ पछिताय,
बोये पेड़ बबूल का, अम्ब कहाँ ते खाय।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि अगर तू अपने को करता समझता था तो चुप क्यों बैठा रहा? और अब कर्म करके पश्चाताप क्यों करता है? पेड़ तो बबूल का लगाया है फिर आम खाने को कहाँ से मिलें?
146. झूठे को झूठा मिले, दूँणा बंधे सनेह,
झूठे को साँचा मिले तब ही टूटे नेह।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि जब झूठे आदमी को दूसरा झूठा आदमी मिलता है तो दूना प्रेम बढ़ता है। लेकिन जब झूठे को एक सच्चा आदमी मिलता है तभी प्रेम टूट जाता है।
147. करता केरे गुन बहुत औगुन कोई नाहिं,
जे दिल खोजों आपना, सब औगुन मुझ माहिं।
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि प्रभु में गुण बहुत हैं, अवगुण कोई नहीं है। जब हम अपने ह्रदय की खोज करते हैं तब सभी अवगुण अपनी ही अंदर पाते हैं।
148. कबीर चंदन के निडै नींव भी चंदन होइ,
बूडा बंस बड़ाइता यों जिनी बूड़े कोइ।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि अगर चंदन के पेड़ के पास निम् का पेड़ हो तो वह भी कुछ सुवास ले लेता है। चंदन का कुछ प्रभाव पा लेता है। लेकिन बांस अपनी लंबाई, बड़ेपन, बडप्पन की वजह से डूब जाता है। इस प्रकार किसी को भी नहं डूबना चाहिए। संगति का अच्छा प्रभाव ग्रहण करना चाहिए, आपने गर्व में ही न रहना चाहिए।
149. क्काज्ल केरी कोठारी, मसि के कर्म कपाट,
पांहनि बोई पृथमीं, पंडित पाड़ी बात।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि यह संसार काजल की कोठरी है, जिसके कर्म रूपी कपाट कालिमा के ही बने हुए हैं। पंडितों ने पृथ्वी पर पत्थर की मूर्तियाँ स्थापित करके मार्ग का निर्माण किया है।
150. मूरख संग न कीजिए, लोहा जल न तिराई,
कदली सीप भावनग मुख, एक बूंद तिहूँ भाई।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि मुर्ख का साथ मत करो। मुर्ख लोहे के समान है जो जल में तैर नहीं पाता डूब जाता है। संगति का प्रभाव इतना पड़ता है कि आकाश से एक बुँदे केले के पत्ते पर गिरकर कपूर, सीप के भीतर गिरकर मोती और सांप के मुख में पड़कर विष बन जाती है।
151. जानि बूझि साँचहि तजै, करै झूठ सूं नेह,
ताकी संगति रामजी, सुपिनै ही जिनि देहु।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि जो जानबूझ कर सत्य का साथ छोड़ देते हैं झूठ से प्रेम प्रेम करते हैं। हे भगवान! ऐसे लोगों की संगति हमें स्वप्न में भी न देना।
152. मन मरया ममता मुई, जहं गई सब छूटी,
जोगी था सो रमि गया, आसणि रही बिभूति।
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि मन को मार डाला ममता भी समाप्त हो गई अहंकार सब नष्ट हो गया जो योगी था वह तो यहाँ से चला गया अब आसन पर उसकी भस्म-विभूति पड़ी रह गई अथार्त संसार में सिर्फ उसका यश रह गया।
153. तरवर तास बिलम्बिए, बारह मांस फलंत,
सीतल छाया गहर फल, पंछी केलि करंत।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि ऐसे पेड़ के नीचे विश्राम करो, जो बारहों महीने फल देता हो। जिसकी चाय शीतल हो, फल सघन हों और जहाँ पक्षी क्रीडा करते हों।
154. काची काया मन अथिर थिर-थिर काम करंत,
ज्यूँ-ज्यूँ नर निधडक फिरै त्यूं-त्यूं काल हसन्त।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि शरीर कच्चा यानि नश्वर है मन चंचल है लेकिन तुम इन्हें स्थिर मानकर काम करते हो, इन्हें अनश्वर मानते हो मनुष्य जितना इस संसार में रमकर निडर घूमता है, मगन रहता है, उतना ही काल उस पर हंसता है! मृत्यु पास है यह जानकर भी इंसान अंजन बना रहता है! कितनी दुखभरी बात है।
155. जल में कुम्भ-कुम्भ में जल है बाहर भीतर पानी,
फूटा कुम्भ जल जलहि समाना यह तथ कह्यौ गयानी।
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि जब पानी भरने जाएं तो घडा जल में रहता है और भरने पर जल घड़े के भीतर आ जाता है इस तरह देखें तो बाहर और भीतर पानी ही रहता है पानी की ही सत्ता है। जब घडा फूट जाता है तब उसका पानी पानी में ही मिल जाता है अलग नहीं रहता – इस तथ्य को ज्ञानी जन कह गए हैं। आत्मा-परमात्मा दो नहीं एक हैं आत्मा परमात्मा में और परमात्मा आत्मा में विराजमान है। अंततः परमात्मा की ही सत्ता है जब देह विलीन होती है वह परमात्मा का ही अंश हो जाती है उसी में समा जाती है। एकाकार हो जाती है।
156. तू कहता कागद की लेखी मैं कहता आँखिन की देखी,
मैं कहता सुरझावन हारि, तू राख्यौ उरझाई रे।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि तुम कागज पर लिखी बात को सच कहते हो। तुम्हारे लिए वह सच है जो कागज पर लिखा है लेकिन मैं आँखों देखा सच ही कहता और लिखता हूँ। कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे पर उनकी बातों में सच्चाई थी। मैं सरलता से हर बात को सुलझाना चाहता हूँ। तूम उसे उलझा कर क्यों रख देते हो? जितने सरल बनोगे उलझन से उतने ही दूर हो पाओगे।
157. मन के हारे हार है मन के जीते जीत,
कहे कबीर हरि पाइए मन ही की परतीत।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि जीवन में जय पराजय सिर्फ मन की भावनाएं हैं। अगर मनुष्य मन में हार गया, निराश हो गया तो पराजय है और अगर उसने मन को जीत लिया तो वह विजेता है। ईश्वर को भी विश्वास से ही पा सकते हैं अगर प्राप्ति का भरोसा ही नहीं तो कैसे पेंगे?
158. पढ़ी-पढ़ी के पत्थर भया लिख-लिख भया जू ईंट,
कहें कबीरा प्रेम की लगी न एको छींट।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि ज्ञान से बड़ा प्रेम है। बहुत ज्ञान हासिल करके अगर मनुष्य पत्थर सा कठोर हो जाए, ईंट जैसा निर्जीव हो जाए तो क्या पाया? अगर ज्ञान मनुष्य को रुखा और कठोर बनता है तो ऐसे ज्ञान का कोई अलभ नहीं। जिस मानव मन को प्रेम ने नहीं छुआ, वह प्रेम के आभाव में जड़ हो रहेगा। प्रेम की एक बूंदे-एक छींटा भर जड़ता को मिटाकर मनुष्य को सजीव बना देता है।
159. पढ़े गुनै सीखै सुनै मिटी न संसै सूल,
कहै कबीर कासों कहूँ ये ही दुःख का मूल।
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि बहुत सी पुस्तकों को पढ़ा गुना सुना सीखा पर फिर भी मन में गड़ा संशय का काँटा न निकला कबीरदास जी कहते हैं कि किसे समझा कर यह कहूँ कि यही तो सब दुखों की जड़ है- ऐसे पठन मनन से क्या लाभ जो मन का संशय न मिटा सके?
160. हाड जले लकड़ी जले जले जलावर हार,
कौतिकहारा भी जले कासों करूं पुकार।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि दाह क्रिया में हड्डियाँ जलती हैं उन्हें जलाने वाली लकड़ी जलती है उनमें आग लगाने वाला भी एक दिन जल जाता है। समय आने पर उस दृश्य को देखने वाला दर्शक भी जल जाता है। जब सब का अंत यही हो तो पनी पुकार किसको दू? किस्से गुहार करूं-विनती या कोई आग्रह करूं? सभी तो एक नियति से बंधे हैं! अभी का अंत एक है!
161. मन मैला तन उजला बगुला कपटी अंग,
तासों तो कौआ भला तन मन एकही रंग।
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास ज कहते हैं कि बगुले का शरीर तो उज्जवल है लेकिन मन काला-कपट से भरा है उसमें तो कौआ भला है जिसका तन मन एक जैसा है और वह किसी को छलता भी नहीं है।
162. कबीर हमारा कोई नहीं हम काहू के नाहिं।
पारै पहुंचे नाव ज्यौं मिलिके बिछुरी जाहिं।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि इस जगत में न कोई हमारा अपना है और न ही हम किसी के! जैसे नांव के नदी पार पहुंचने पर उसमें मिलकर बैठे हुए सब यात्री बिछुड़ जाते हैं वैसे ही हम सब मिलकर बिछुड़ने वाले हैं। सब सांसारिक संबंध यहीं छूट जाने वाले हैं।
163. देह धरे का दंड है सब काहू को होय,
ज्ञानी भुगते ज्ञान से अज्ञानी भुगते रोय।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि देह धारण करने का दंड भोग या प्रारब्ध निश्चित है जो सब को भुगतना होता है। अंतर केवल इतना ही है कि ज्ञानी या समझदार व्यक्ति इस भोग को या दुःख को समझदारी से भोगता है, निभाता है, संतुष्ट रहता है जबकि अज्ञानी रोते हुए-दुखी मन से सब कुछ झेलता है।
164. हीरा परखै जौहरी शब्दहि परखै साध,
कबीर परखै साध को ताका मता अगाध।
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि हीरे की परख जौहरी जनता है – शब्द के सार-असार को परखने वाला विवेकी साधू-सज्जन होता है। कबीर दास जी कहते हैं कि जो साधू-असाधु को परख लेता है उसका मत अधिक गहन गंभीर है।
165. एक ही बार परखिए न वा बारम्बार,
बालू तो हू किरकिरी जो छानै सौ बार।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि किसी व्यक्ति को सिर्फ ठीक-ठीक एक बार ही परख लो तो उसे बार-बार रखने की जरूरत नहीं होगी। रेट को अगर सौ बार भी छान लिया जाए तब भी उसकी किकिराहट दूर नहीं होगी इसी तरह से मूढ़ दुर्जन को बार-बार भी परखो तब भी वह अपनी मूढ़ता दुष्टता से भरा वैसा ही मिलेगा। लेकिन सही व्यक्ति की परख एक बार में ही हो जाती है!
166. पतिबरता मैली भली गले कांच की पोत,
सब सखियाँ में यों दिपै ज्यों सूरज की जोत।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि पतिव्रता स्त्री अगर तन से मैली भी हो तो भी अच्छी है। चाहे उसके गले में सिर्फ कांच के मोती की माला ही क्यों न हो। फिर भी वह अपनी सब सखियों के बिच सूर्य के तेज के समान चमकती है।