1. कोई काम शुरू करने से पहले, खुद से तीन प्रश्न कीजिए – मैं ये क्यों कर रहा हूँ, इसके परिणाम क्या हो सकते हैं और क्या मैं सफल होऊंगा। और जब गहराई से सोचने पर इन प्रश्नों के संतोषजनक उत्तर मिल जाएं, तभी आगे बढिए।
2. व्यक्ति अकेले पैदा होता है और अकेले मर जाता है, और वो अपने अच्छे और बुरे कर्मों का फल खुद ही भुगतता है, और वह अकेले ही नर्क या स्वर्ग जाता है।
3. भगवान मूर्तियों में नहीं है। आपकी अनुभूति आपका ईश्वर है। आत्मा आपका मंदिर है।
4. अगर सांप जहरीला न भी हो तो उसे खुद को जहरीला दिखाना चाहिए।
5. इस बात को व्यक्त मत होने दीजिए कि आपने क्या करने के लिए सोचा है, बुद्धिमानी से इसे रहस्य बनाए रखिए और इस काम को करने के लिए दृढ रहिए।
6. शिक्षा सबसे अच्छी मित्र है। एक शिक्षित व्यक्ति हर जगह सम्मान पाता है। शिक्षा सौंदर्य और यौवन को परस्त कर देती है।
7. जैसे ही भय आपके करीब आए, उस पर आक्रमण कर उसे नष्ट कर दीजिए।
8. किसी मुर्ख व्यक्ति के लिए किताबें उतनी ही उपयोगी हैं जितना कि एक अंधे व्यक्ति के लिए आईना।
9. जब तक आपका शरीर स्वस्थ और नियंत्रण में है और मृत्यु दूर है, अपनी आत्मा को बचाने की कोशिश कीजिए, जब मृत्यु सिर पर आ जाएगी तब आप क्या कर पाएंगे?
10. कोई व्यक्ति अपने कार्यों से महान होता है, अपने जन्म से नहीं।
11. सर्प, नृप, शेर, डंक मरने वाले ततैया, छोटे बच्चे, दूसरों के कुत्तों, और एक मूर्खः इन सातों को नीद से नहीं उठाना चाहिए।
12. जिस प्रकार एक सूखे पेड़ को अगर आग लगा दी जाए तो वह पूरा जंगल जला देता है, उसी प्रकार एक पापी पुत्र पुरे परिवार को बर्बाद कर देता है।
13. सबसे बड़ा गुरु मंत्र है: कभी भी अपने राज दूसरों को मत बताएं। ये आपको बर्बाद कर देगा।
14. पहले पांच सालों में अपने बच्चे को बड़े प्यार से रखिए। अगले पांच साल उन्हें डांट-डपट के रखिए। जब वह सोलह साल का हो जाए टी उसके साथ एक मित्र की तरह व्यवहार करिए। आपके व्यस्क बच्चे ही आपके सबसे अच्छे मित्र हैं।
15. फूलों की सुगंध केवल वायु की दिशा में फैलती है। लेकिन एक व्यक्ति की अच्छाई हर दिशा में फैलती है।
16. दुनिया की सबसे बड़ी शक्ति नौजवानी और औरत की सुन्दरता है।
17. हमें भूत के बारे में पछतावा नहीं करना चाहिए, न ही भविष्य के बारे में चिंतित होना चाहिए, विवेकवान व्यक्ति हमेशा वर्तमान में जीते हैं।
18. हर मित्रता के पीछे कोई-न-कोई स्वार्थ होता है। ऐसी कोई मित्रता नहीं जिसमें स्वार्थ न हो। यह कड़वा सच है।
19. वेश्याएं निर्धनों के साथ नहीं रहतीं, नागरिक कमजोर संगठन का समर्थन नहीं करते, और पक्षी उस पेड़ पर घोंसला नहीं बनाते जिस पे फल न हों।
20. सांप के फेन, मक्खी के मुख और बिच्छु के डंक में जहर होता है, पर दुष्ट व्यक्ति तो इससे भरा होता है।
21. वह जो अपने परिवार से अत्यधिक जुड़ा हुआ है, उसे भय और चिंता का सामना करना पड़ता है, क्योंकि सभी दुखों की जड़ लगाव है। इसलिए खुश रहने के लिए लगाव छोड़ देना चाहिए।
22. वह जो हमारे चिंतन में रहता है वह करीब है, भले ही वास्तविकता में वह बहुत दूर ही क्यों न हो, लेकिन जो हमारे ह्रदय में नहीं है वो करीब होते हुए भी बहुत दूर होता है।
23. अपमानित हो के जीने से अच्छा ,मरना है। मृत्यु तोबस एक क्षण का दुःख देती है, लेकिन अपमान हर दिन जीवन में दुःख लाता है।
24. कभी भी उनसे मित्रता मत कीजिए जो आपसे कम या ज्यादा प्रतिष्ठा के हों। ऐसी मित्रता कभी आपको खुशी नहीं देगी।
25. जब आप किसी काम की शुरुआत करें, तो असफलता से मत डरें और उस काम को न छोड़ें। जो लोग ईमानदारी से काम करते हैं वो सबसे प्रसन्न होते हैं।
26. सेवक को तब परखें जब वह काम न कर रहा हो, रिश्तेदार को किसी कठिनाई में, मित्र को संकट में, और पत्नी को घोर विपत्ति में।
27. संतुलित दिमाग जैसी कोई सादगी नहीं हैं, संतोष जैसा कोई सुख नहीं है, लोग जैसी कोई बीमारी नहीं है, और दया जैसा कोई पूण्य नहीं है।
28. अगर किसी का स्वभाव अच्छा है तो उसे किसी और गुण की क्या जरुरत है? अगर आदमी के पास प्रसिद्धि है तो भला उसे और किसी श्रंगार की क्या आवश्यकता है।
29. हे बुद्धिमान लोगों! अपना धन उन्हीं को दो जो उसके योग्य हों और किसी को नहीं। बादलों के द्वारा लिया गया समुद्र का जल हमेशा मीठा होता है।
30. पृथ्वी सत्य की शक्ति द्वारा समर्थित है, ये सत्य की शक्ति ही है जो सूरज को चमक और हवा को वेह देती है, दरअसल सभी चीजें सत्य पर निर्भर करती हैं।
31. वो जिसका ज्ञान बस किताबों तक सीमित है और जिसका धन दूसरों के कब्जे में है, वो जरुरत पड़ने पर न अपना ज्ञान प्रयोग कर सकता है न धन।
32. जो सुख-शांति को अध्यात्मिक शांति के अमृत से संतुष्ट होने पे मिलती है वो लालची लोगों को बेचैनो से इधर-उधर घूमने से नहीं मिलती।
33. एक अनपढ़ व्यक्ति का जीवन उसी तरह से बेकार है जैसे कि कुत्ते की पूंछ, जो न उसके पीछे का भाग ढकती है न ही उसे कीड़े-मकौडों के डंक से बचाती है।
34. एक उत्कृष्ट बात जो शेर से सीखी जा सकती है वो ये है कि व्यक्ति जो कुछ भी करना चाहता है उसे पुरे दिल और जोरदार प्रयास के साथ करे।
35. सारस की तरह एक बुद्धिमान व्यक्ति को अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण रखना चाहिए और अपने उद्देश्य को स्थान की जानकारी, समय और योग्यता के अनुसार प्राप्त करना चाहिए।
36. जो लोग परमात्मा तक पहुंचना चाहते हैं उन्हें वाणी, मन, इन्द्रियों की पवित्रता और एक दयालु ह्रदय की आवश्यकता होती है।
37. दूसरों की गलतियों से सीखो खुद पर प्रयोग करके सीखने में तुम्हारी पूरी उम्र भी कम पड़ेगी।
38. जो व्यक्ति बीमारी में, दुःख में, गरीबी में, शत्रु द्वारा कोई संकट खड़ा करने पर, शासकीय कार्यों में और परिवार में किसी की मृत्यु के समय हमारे साथ उपस्थित रहे, वही हमारा शुभचिंतक है। इन परिस्थितियों में साथ निभाने वाले व्यक्ति का कभी हाथ नहीं छोड़ना चाहिए।
39. बुद्धिमान व्यक्ति भी तब घोर परेशानी से घिर जाता है, जब वह किसी मुर्ख व्यक्ति को यह समझाने की कोशिश करता है कि सही क्या है और गलत क्या है।
40. अच्छा मनुष्य भी तब कष्ट भोगता है, जब उसे दुष्ट पत्नी का पालन पोषण करना पड़ता है। जब कोई व्यक्ति किसी दुखी व्यक्ति के साथ बहुत मेलजोल बढ़ा लेता है, तो उसे भी कष्ट उठाना पड़ता है।
41. बुरी पत्नी, झूठा दोस्त, बदमाश नौकर और सांप के साथ रहना मरने जैसा होता है।
42. हर व्यक्ति को भविष्य में आने वाली मुसीबतों से निपटने के लिए धन जमा करना चाहिए और जरुरत पड़ने पर धन-दौलत का त्याग करके भी अपनी पत्नी की रक्षा करनी चाहिए, लेकिन जब आत्मा के रक्षा की बात आये तो उसे धन और पत्नी दोनों को तुच्छ समझना चाहिए।
43. भविष्य में आने वाली मुसीबतों के लिए धन एकत्रित करना चाहिए।
44. उस स्थान में निवास करना चाहिए, जहाँ आपकी ईज्जत न हो, जहाँ आप जीविका चलाने के लिए धन नहीं कम सकते हैं, जहाँ आपका कोई दोस्त नहीं हो और जहाँ आप ज्ञान की बात नहीं सीख सकते हैं।
45. ऐसे स्थान पर एक दिन भी नहीं रहना चाहिए। जहाँ निम्न 5 न हो : एक अमीर व्यक्ति, वेदों को जानने वाला ब्राह्मण हो, एक राजा, एक नदी, और एक डॉक्टर।
46. बुद्धिमान व्यक्ति को ऐसे देश में कभी नहीं जाना चाहिए-जहाँ पैसा कमाने का कोई साधन न हो, जहाँ लोगों में सही-गलत का डर न हो, जहाँ लोगों में श्रम न हो, जहाँ के लोग बुद्धिमान न हो, जहाँ लोग दान-धर्म न करते हों।
47. नौकर की परीक्षा तब होती है, जब वह कर्तव्य का पालन नहीं करता। रिश्तेदारों की परीक्षा तब होती है, जब आप पर कोई मुसीबत आती है। दोस्त की परीक्षा मुश्किल घडी में होती है। और जब बुरे समय में पत्नी की परीक्षा होती है।
48. अच्छा दोस्त वही है जो आपको निम्न स्थितियों में अकेला नहीं छोड़ता है- जरुरत पड़ने पर, किसी दुर्घटना पड़ने पर, अकाल पड़ने पर, जब युद्ध हो रहा हो, जब आपको राजदरबार में जाना पड़े, और जब आपको श्मशान घाट जाना पड़े।
49. जो व्यक्ति किसी नाशवान वास्तु के लिए, कभी नाश होने वाली चीज को छोड़ देता है, तो उसके हाथ से अविनाशी वस्तु तो चली हिन् जाती है और इसमें भी कोई संदेह नहीं कि वह नाशवान वस्तु को भी खो देता है।
50. हमें इज्जतदार घर की कन्या से ही विवाह करना चाहिए। किसी बुरे घर की बहुत सुंदर कन्या से कभी विवाह नहीं करना चाहिए। विवाह हमेशा बराबरी वाले घरों में अच्छा होता है।
51. इन पांच लोगों पर कभी विश्वास न करें: नदियाँ, जिन लोगों के पास अस्त्र-शस्त्रों, नाखून और सींग वाले जानवर, औरतें, राजघराने के लोगों पर।
52. अगर हो सके तो विष से भी अमृत निकाल लेना चाहिए, अगर सेना गंदे स्थान में भी गिरा हुआ हो तो उसे उठा लेना चाहिए, नीच कुल ममे जन्म लेने वाले व्यक्ति से भी ज्ञान की बातें सीखनी चाहिए, बदनाम घर की स्त्री भी महान गुणों से संपन्न हो, तो उसे ग्रहण करना चाहिए।
53. महिलाओं में पुरुषों की अपेक्षा : भूख दो गुना, लज्जा चार गुना, साहस छ: गुना, और काम आठ गुना अधिक होती है।
54. भोजन के योग्य पदार्थों की हमेशा उपलब्धता और भोजन करने की क्षमता, सुंदर पत्नी और उसे भोगने के लिए पर्याप्त काम शक्ति, पर्याप्त धन और दान देने की भावना-ये साडी चीजें विशेष ताप के फलस्वरूप प्राप्त होती है।
55. उस व्यक्ति के लिए धरती पर स्वर्ग है: जिसका बीटा आज्ञाकारी है, जिसकी पत्नी उसकी इच्छा के अनुसार व्यवहार करती हो, जिसे अपने पास के धन पर संतोष है।
56. पुत्र वही है जो पिता का कहना मानता हो, पिता पुत्रों का पालन-पोषण करता ही, मित्र वही है जिस पर विश्वास किया जा सकता है और पत्नी वही है जिससे सुख मिले।
57. ऐसे लोगों से दूर रहें जो आपके मुंह में तो मीठी-मीठी बातें करते हैं, लेकिन आपके पीठ पीछे आपको बर्बाद करने की योजना बनाते हैं, ऐसे लोग उस जहर भरे घड़े के समान होते हैं, जिसकी ऊपरी सतह दूध से भरी हैं, लेकिन नीचे जहर ही जहर भरा हुआ है।
58. बुरे दोस्त पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए। साथ ही एक अच्छे दोस्त पर भी विश्वास नहीं करना चाहिए। क्योंकि अगर ऐसे लोग आपसे रुष्ट होंगे तो आपके सभी राज सभी को बता देंगे।
59. मन में सोचे हुए काम को किसी को नहीं बताना चाहिए। बल्कि गंभीरता से चिंतन करते हुए, उसकी रक्षा करते हुए उस कार्य को संपादित कर देना चाहिए।
60. मुर्खता दुःख देने वाली है, जवानी भी दुःख देने वाली है, लेकिन इन दोनों से कहीं अधिक दुःख देने वाली चीज है, किसी दुसरे व्यक्ति के घर में जाकर उसका अहसान लेना।
61. हर पर्वत पर माणिक्य नहीं होते, हर हठी के सिर पर मणी नहीं होता, सज्जना पुरुष भी हर जगह नहीं होते और हर वन में चन्दन के पेड़ नहीं होते हैं।
62. बुद्धिमान पिता अपने पुत्रों के अच्छे गुणों की शिक्षा देता है क्योंकि नीतिज्ञ और ज्ञानी लोगों को ही कुल में महत्व मिलता है।
63. जो व्यक्ति दुराचारी, बुरो दृष्टि वाले, और बुरे स्थान में रहने वाले व्यक्ति के साथ दोस्ती करता है, जल्दी ही उसका नाश हो जाता है।
64. प्यार और दोस्ती बराबर वाले लोगों के बीच में अच्छी होती है, राजा के यहाँ नौकरी करने वाले को ही सम्मान मिलता है, वाणिज्य सबसे अच्छा व्यवसाय है, और अच्छे गुणों वाली स्त्री अपने घर में सुरक्षित रहती है।
65. दोहा- सत्य वस्तु को त्यागी जो, करै असत की आश,
है ही असत विनाश तो, होई सत्य हु नाश।
अर्थ – चाणक्य जी कहते हैं कि जो धुव यानि वस्तु अथवा कार्य को छोड़कर अधुव यानि असत्य वस्तु या कार्य को अपनाता है उसकी सत्य वस्तु भी नाश हो जाती है अथार्त मिलती नहीं है। इसलिए सत्य को ही अपनाना चाहिए क्योंकि असत्य तो खुद ही नाशवान।
66. दोहा- व्यसन रोग दुष्काल अरु, शत्रु करे आघात,
नृप संमुख श्मशान में, साथ रहे सो भ्रात।
अर्थ – चाणक्य जी कहते हैं कि आतुर यानि बीमार होने पर, किसी बुरे कार्य में फंसने पर, अकाल पड़ने पर, बैरी द्वारा कष्ट में फंस जाने पर, राज्य दरबार में और श्मशान भूमि में जो अपने साथ रहता है या साथ देता है असल में वही भाई है, बन्धु है।
67. दोहा- यत्न किए नहीं दीनता, जाप किए नहीं पाप,
मौन रहे न कलह कछु, जागे निर्भय आप।
अर्थ – चाणक्य जी कहते हैं कि उपाय उपयोग करने से दरिद्रता दूर हो जाती है। जप करने से पापों का नाश होता है। मौन हो जाने से लड़ाई होते हुए भी शांत हो जाती है और जागते रहने से भय अवश्य ही दूर हो जाता है।
68. दोहा- पीछे सोचें मारनों, संमुख प्रगटे प्रीति,
विष भीतर मुख दूध है, तजन जोग अस मीत।
अर्थ – चाणक्य जी कहते हैं कि ऐसा मित्र जो आपके सामने तो मीठी-मीठी बात बनाता है और पीठ पीछे कार्य को बिगड़ता है, वह कभी भी सच्चा मित्र नहीं बन सकता है ऐसा मित्र तो उस घड़े के समान है जिसमें जहर भरा है और मुखड़े पर थोडा दूध दिखाई पड़ता है ऐसे मित्र को त्यागना ही उचित है।
69. दोहा- कबहु कुमित्र सुमित्र पै, नहीं कीजै विश्वास,
प्रिय सुमित्र हू क्रोध में, कर दे भेद प्रकाश।
अर्थ – चाणक्य जी कहते हैं कि किसी भी मित्र पर यकायक विश्वास करना ठीक नहीं होता है क्योंकि मित्र भी अगर कभी क्रोधित हो जाता है तो सब गुप्त भेद को प्रकट कर देता है।
70. दोहा- मन में सोचे काज को, प्रकट करो जनि कोई,
जन लों होई न काज मन, तब लों राखहु गोई।
अर्थ – चाणक्य जी कहते हैं कि मन में सोचे हुए काम को किसी के सामने प्रकट नहीं करना चाहिए क्योंकि वचन से जाहिर हुआ कान नष्ट हो जाता है। इसलिए मन्त्र की भांति कार्य को गुप्त रखकर ही पूरा करना चाहिए।
71. दोहा- बोली कहि दे देश को, अरु कुल को आचार,
तन कहि दे आहार को, प्रीति कहै सत्कार।
अर्थ – चाणक्य जी कहते हैं कि आचार विचार से कुल का पता लगता है, भाषा बोली से देश का पता लगता है। आदर भाव से प्रीटी जानी जाती है और शरीर के रूप से भोजन का पता लग ही जाता है।
72. दोहा- यौवन हो अरु रूप हो, हो नहीं विद्या पास,
ता नर को बिन गंध के, जानहु फूल पलास।
अर्थ – चाणक्य जी कहते हैं कि सुंदर रूप जवानी की दीपक, बड़े कुल में जन्म ये सब मनुष्य में होते हुए अगर विद्या से रहित है तो विद्याहीन मनुष्य ढाक के फूल के समान ही है ओ देखने में सुंदर है लेकिन सुगंध से खली है।
73. दोहा- दर्श ध्यान स्पर्श करि, कछुई पक्षिणी मीन,
पालहिं शिशु त्यों ही सुनो, सज्जन संग प्रवीन।
अर्थ – चाणक्य जी कहते हैं कि सज्जनों का साथ बड़ा उत्तम होता है क्योंकि ये अपनी संगति में आए हुए का इस प्रकार पालन-पोषण करते है जैसे मछली कछुआ और पक्षी अपने बच्चों का दर्शन, ध्यान और स्पर्श से पोषण करते है।
74. दोहा- कामधेनु के सर्वगुण, विद्या में लेउ जान,
गुप्त वित्त प्रदेश में, रक्षै मातु समान।
अर्थ – चाणक्य जी कहते हैं कि विद्या कामधेनु के समान होती है जो अकाल में भी फल देती है। जैसे कामधेनु से अकाल में भी दूध प्राप्त होता है और प्रदेश में माता की तरह रक्षा करती है। इसलिए विद्या गुप्त धन जैसा है। इसका संग्रह करना आवश्यक है।
75. दोहा- बल न आत्म बल सम कोई, ज न तुली जल मेह,
नहिं प्रकाश कोऊ नेत्र सम, वस्तु अन्न सम केह।
अर्थ – चाणक्य जी कहते हैं कि मेघ के जल जैसा दूसरा जल उत्तम नहीं, आत्मबल जैसा कोई दूसरा बल नहीं। नेत्र तेज के समान दूसरा तेज नहीं और अन्न के समान दूसरी कोई वस्तु प्यारी इस संसार में नहीं है।
76. दोहा- निज धन भोजन नरि में, नित उर धरि संतोष,
पाढिवे में जप दान में, कबहु न करि संतोष।
अर्थ – चाणक्य जी कहते हैं कि मनुष्य को अपनी औरत, अपने धन और समयानुसार अपने भोजन में सतोष करना चाहिए लेकिन विद्या पढने, जप करने और दान देने में कभी संतोष करना ठीक नहीं।
77. दोहा- अति सीधे बनिए नहीं, लखहु बिपन में जाए,
सीधे तरु कटि जात हैं, टेड़े खड़े सतराय।
अर्थ – चाणक्य जी कहते हैं कि अत्यंत सीधा होना भी दुखदायी होता है। सीधे स्वभाव वाला व्यक्ति उसी तरह दुःख को भोगता है जैसे वन में सीधा वृक्ष शीघ्र काट लिया जाता और टेड़े-मेडे को काटने में समय लगता है।
78. दोहा- अपच भये जल औषधि, पचे देय बल जान,
भोजन समय जन अमिय, भोजनांत विष मान।
अर्थ – चाणक्य जी कहते हैं कि जल का गुण-अपच व्यवस्था में पीना औषधि है। भोजन पाच जाने पर जल पीना बलदायक है। भोजन करते समय मध्य-मध्य में पीना अमृत के समान गुण वाला है किन्तु भोजन के बाद तुरंत जल का एकदम पीना विषकारी है।
79. दोहा- शास्त्र विचारौ कहा करै, जाहि न बुधि विधि दीन,
दरपन में देखे कहा, जो मानव दृग हीन।
अर्थ – चाणक्य जी कहते हैं कि जिनमें खुद बुद्धि नहीं उसको शास्त्र की शिक्षा क्या लाभ पहुंचाएगी जैसे कि अंधे को दर्पण दिखने से क्या लाभ।
80. दोहा- जितने दुःख या जगत में, सबै सहर्ष सहै,
परि बन्धुन में निर्धनी, व्है नहिं जियत रहै।
अर्थ – चाणक्य जी कहते हैं कि सिंह और बड़े-बड़े हाथियों से घिरे वन में, वृक्षों के नीचे रहकर, फलफूल खाकर जल पीकर घास पर सो रहना और चाल आदि चिथड़ों के वस्त्र से शरीर ढक लेना अच्छा है लेकिन धनहीन होकर बंधुओं के बीच रहना अच्छा नहीं।
81. दोहा- जल की इक-इक बूंद सों, कबहू घडा भरिजाय,
विद्या धन अरु धर्म कौ, जानों यही सुभाय।
अर्थ – चाणक्य जी कहते हैं कि एक-एक बूंद जल के गिरने स घडा भर जाता है। इसी तरह विद्या धन और धर्म भ धीरे-धीरे संचय करने से इकट्ठे होते है।
82. कुबेर भी अगर आय से ज्यादा व्यय करे तो कंगाल हो जाता है।
83. मुर्ख लोगों से वाद-विवाद नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से हम अपना ही समय नष्ट करते है।
84. अलसी मनुष्य का वर्तमान और भविष्य नहीं होता।
85. भाग्य उनका साथ देता है जो कठिन परिस्थितियों का सामना करके भी अपने लक्ष्य के प्रति दृढ रहते है।
86. मनुष्य खुद ही अपने कर्मों के द्वारा जीवन में दुःख को बुलाता है।
87. जो तुमारी बात को सुनते हुए इधर-उधर देखे उस व्यक्ति पर कभी भी विश्वास न करें।
88. कभी भी अपनी कमजोरी को खुद उजागर न करो।
89. कोई भी व्यक्ति ऊँचे स्थान पर बैठकर ऊँचा नहीं हो जाता बल्कि हमेशा अपने गुणों से ऊँचा होता है।
90. बुद्धि से पैसा कमाया जा सकता है, पैसे से बुद्धि नहीं।
91. दंड का डर नहीं होने से लोग गलत कार्य करने लग जाते हैं।
92. बहुत से गुणों के होने के बाद भी सिर्फ एक दोष सब कुछ नष्ट कर सकता है।
93. दुश्मन द्वारा अगर मधुर व्यवहार किया जाए तो उसे दोष मुक्त नहीं समझना चाहिए।
94. किसी भी अवस्था में सबसे पहले माँ को भोजन कराना चाहिए।
95. सभी प्रकार के डरों में सबसे बड़ा डर बदनामी का होता है।
96. बुद्धिमान व्यक्ति का कोई दुश्मन नहीं होता।
97. कोई जंगल सारा जैसे एक सुगंध भरे वृक्ष से महक जाता है उसी तरह एक गुणवान पुत्र से सरे कुल का नाम बढ़ता है।
98. कोई भी शिक्षक कभी साधारण नहीं होता प्रलय और निर्माण उसकी गोद में पलते है।
99. एक अनपढ़ व्यक्ति का जीवन उसी तरह का होता है जैसे कि कुत्ते की पूछ जो न ही उसके पीछे का भाग ढकती है और न ही उसे क्किदों से बचाती है।
100. इंसान को ज्यादा ईमानदार भी नहीं होना चाहिए, सीधे पेड़ पहले काटे जाते हैं। ईमानदार लोग भी पहले ठगे जाते हैं।
101. समय ही इंसान को बनाता और बर्बाद करता है।
102. हमें अतीत के लिए झल्लाहट नहीं करना चाहिए, और न ही भविष्य के बारे में चिंतित होना चाहिए। समझदार इंसान हमेशा आज में जीते है।
103. झूठ बोलना, उतावला पण दिखाना, दुस्साहस करना, छल-कपट करना, मूर्खतापूर्ण कार्य करना, लोभ करना, अपवित्रता और निर्दयता-ये सभी स्त्रियों के स्वाभाविक दोष हैं। चाणक्य उपर्युक्त दोषों को स्त्रियों का स्वभाविक गुण मानते है। हालाँकि वर्तमान दौर की शिक्षित स्त्रियों में इन दोषों का होना सही नहीं कहा जा सकता है।
104. आपका हमेशा खुश रहना आपके दुश्मनों के लिए सबसे बड़ी सजा है।
105. इतिहास गवाह है कि जितना नुकसान हमें दुर्जनों की दुर्जनता से नहीं हुआ, उससे ज्यादा सज्जनों की निष्क्रियता से हुआ।
106. मूर्खों से तारीफ सुनने से बुद्धिमान से डाट सुनना ज्यादा बेहतर है।
107. जो लोगों पर कठोर से कठोर सजा को लागू करता है वो लोगों की नजर में घिनौना बनता जाता है, जबकि नरम सजा लागू करता है वह तुच्छ बनता है। लेकिन जो योग्य सजा को लागू करता है वह सम्माननीय कहलाता है।
108. जब कोई सजा थोड़े मुआवजे लके साथ दी जाती है, तब वह लोगों को नेकी करने के लिए निष्ठावान और पैसे और खुशी कमाने के लिए प्रेरित करती है।
109. जमा पूंजी ये होने वाले खर्चों में से ही बचाई जाती है वैसे ही जैसे आनेवाला तजा पानी, निष्क्रिय पानी को बहाकर बचाया जाता है।
110. हंस वही रहते है जहाँ पानी हो, और वो जगह छोड़ देते हैं जहाँ पानी खत्म हो गया हो। क्यों न ऐसा इंसान भी करे-प्रेमपूर्वक आए और प्रेमपूर्वक जाए।
111. जिस तरह गाय का बछड़ा हजारों गायों में अपनी माँ के पीछे जाता है उसी तरह मनुष्य के कर्म भी मनुष्य के ही पीछे जाते हैं।
112. जिसने अन्याय पूर्वक धन इकट्ठा किया है और अकड कर सिर को उठाए रखा हैं ऐसे लोगों से हमेशा दूर रहो, क्योंकि ऐसे लोग खुद पर बोझ होते हैं।
113. आँख के अंधे को दुनिया नहीं दिखती, काम के अंधे को विवेक नहीं दीखता, शराब के अंधे को अपने से महान नहीं दिखता और स्वार्थी को कभी भी दोष नहीं दिखता।
114. संसार एक कडवा वृक्ष है, इसके दो फल ही अमृत जैसे मीठे होते हैं- एक मधुर वाणी और दूसरी सज्जनों की संगति।
115. भक्ति ही सभी सफलताओं का मूल है।
116. सफलता ही विद्या का आभूषण है।
117. कामयाब होने के लिए अच्छे मित्रों की जरुरत होती है और ज्यादा कामयाब होने के लिए अच्छे शत्रुओं की आवश्यकता होती है।
118. विद्या को चोर भी नहीं चुरा सकता।
119. आग सिर में स्थापित करने पर भी जलाती है। अथार्त दुष्ट व्यक्ति का कितना भी सम्मान कर लें, व सदा दुःख ही देता है।
120. गरीब धन की इच्छा करता है, पशु बोलने योग्य होने की, आदमी स्वर्ग की इच्छा करते हैं और धार्मिक लोग मोक्ष की।
121. संकट में बुद्धि भी काम नहीं आती है।
122. जो जिस कार्य में कुशल हो उसे उसी कार्य में लगना चाहिए।
123. किसी भी कार्य में पल भर का भी विलंब न करें।
124. दुर्बल के साथ संधि न करें।
125. किसी विशेष प्रयोजन के लिए ही शत्रु मित्र बनता है।
126. संधि करने वालों में तेज ही संधि का होता है।
127. कच्चा पात्र कच्चे पात्र से टकराकर टूट जाता है।
128. संधि और एकता होने पर भी सतर्क रहें।
129. शत्रुओं से अपने राज्य की पूर्ण रक्षा करें।
130. शिकारप्र्स्त राजा धर्म और अर्थ दोनों को नष्ट कर लेता है।
131. भाग्य के विपरीत होने पर अच्छा कर्म भी दुखदायी हो जाता है।
132. शत्रु की बुरी आदतों को सुनकर कानों को सुख मिलता है।
133. चोर और राज कर्मचारियों से धन की रक्षा करनी चाहिए।
134. जन्म मरण में दुःख ही है।
135. पृथ्वी सत्य पे टिकी हुई है। ये सत्य की ही ताकत है, जिससे सूर्य चमकता है और हवा बहती है। वास्तव में सभी चीजें सत्य पे टिकी हुई हैं।
136. जिस आदमी से हमें काम लेना है, उससे हमें वही बात करनी चाहिए जो उसे अच्छी लगे। जैसे एक शिकारी हिरन का शिकार करने से पहले मधुर आवाज में गाता है।
137. वो व्यक्ति जो दूसरों के गुप्त दोषों के बारे में बातें करते हैं, वे अपने आप को बांबी में आवारा घुमने वाले साँपों की तरह बर्बाद कर लेते हैं।
138. एक आदर्श पत्नी वो है जो अपने पति की सुबह माँ की तरह सेवा करे और दिन में एक बहन की तरह प्यार करे और रात में एक वेश्या की तरह खुश करे।
139. वो जो अपने परिवार से अति लगाव रखता है भय और दुःख में जीता है। सभी दुखों का मुख्य कारण लगाव ही है, इसलिए खुश रहने के लिए लगाव का त्याग आवश्यक है।
140. एक संतुलित मन के बराबर कोई तपस्या नहीं है। संतोष के बराबर कोई खुशी नहीं है। लोभ के जैसी कोई बीमारी नहीं है। दया के जैसा कोई सदाचार नहीं है।
141. ऋण, शत्रु और रोग को समाप्त कर देना चाहिए।
142. वन की अग्नि चंदन की लकड़ी को भी जला देती है, अथार्त दुष्ट व्यक्ति किसी का भी अहित कर सकते हैं।
143. शत्रु की दुर्बलता जानने तक उसे अपना मित्र बनाए रखें।
144. शेर भूखा होने पर भी तिनका नहीं खाता।
145. अन्न के सिवाय कोई दूसरा धन नहीं है।
146. भूख के समान कोई दूसरा शत्रु नहीं है।
147. विद्या ही निर्धन का धन है।
148. शत्रु के गुण को भी ग्रहण करना चाहिए।
149. अपने स्थान पर बने रहने से ही मनुष्य पूजा जाता है।
150. किसी लक्ष्य की सिद्धि में कभी शत्रु का साथ न करे।
151. सोने के साथ मिलकर चांदी भी सोने जैसी दिखाई पडती है अथार्त सत्संग का प्रभाव मनुष्य पर अवश्य पड़ता है।
152. ढेकुली नीचे सिर झुकाकर ही कुएं से जल निकालती है अथार्त कपटी या पापी व्यक्ति सदैव मधुर वचन बोलकर अपना काम निकालते हैं।
153. सत्य भी अगर अनुचित है तो उसे नहीं कहना चाहिए।
154. समय का ध्यान नहीं रखने वाला व्यक्ति अपने जीवन में निर्विघ्न नहीं रहता।
155. दोषहीन कार्यों का होना दुर्लभ होता है।
156. चंचल चित वाले के कार्य कभी समाप्त नहीं होते।
157. पहले निश्चय करिए, फिर कार्य आरंभ करें।
158. भाग्य पुरुषार्थी के पीछे चलता है।
159. अर्थ और धर्म, कर्म का आधार है।
160. शत्रु दंड निति के ही योग्य है।
161. कठोर वाणी अग्नि दाह से भी अधिक तीव्र दुःख पहुंचाती है।
162. व्यसनी व्यक्ति कभी सफल नहीं हो सकता।
163. शक्तिशाली शत्रु को कमजोर समझकर ही उस पर आक्रमण करें।
164. अपने से अधिक शक्तिशाली और अमन बल वाले से शत्रुता न करें।
165. मंत्रणा को गुप्त रखने से ही कार्य सिद्ध होता है।
166. योग्य सहायकों के बिना निर्णय करना बड़ा कठिन होता है।
167. एक अकेला पहिया नहीं चला करता।
168. अविनीत स्वामी के होने से तो स्वामी का न होना अच्छा है।
169. जिसकी आत्मा संयमित होती है, वही आत्मविजयी होता है।
170. स्वभाव का अतिक्रमण अत्यंत कठिन है।
171. धूर्त व्यक्ति अपने स्वार्थ के लिए दूसरों की सेवा करते हैं।
172. दुष्ट स्त्री बुद्धिमान व्यक्ति के शरीर को भी निर्बल बना देती है।
173. आग में आग नहीं डालनी चाहिए। अथार्त क्रोधी व्यक्ति को अधिक क्रोध नहीं दिलाना चाहिए।
174. दुष्ट की मित्रता से शत्रु की मित्रता अच्छी है।
175. दूध के लिए हथिनी पलने की जरुरत नहीं होती अथार्त आवश्यकता के अनुसार साधन जुटाने चाहिए।
176. कल का कार्य आज ही कर लें।
177. सुख का आधार धर्म है।
178. अर्थ का आधार राज्य है।
179. वृद्धजन की सेवा ही विनय का आधार है।
180. वृद्ध सेवा अथार्त ज्ञानियों की सेवा से ही ज्ञान प्राप्त होता है।
181. ज्ञान से राजा अपनी आत्मा का परिष्कार करता है, सम्पादन करता है।
182. आत्मविजयी सभी प्रकार की संपत्ति एकत्र करने में समर्थ होता है।
183. इन्द्रियों पर विजय का आधार विनम्रता है।
184. प्रकृति का कोप सभी कोपों से बड़ा होता है।
185. शासक को खुद योग्य बनकर योग्य प्रशासकों की सहायता से शासन करना चाहिए।
186. सुख और दुःख में समान रूप से सहायक होना चाहिए।
187. स्वाभिमानी व्यक्ति प्रतिकूल विचारों को सम्मुख रखकर दुबारा उन पर विचार करें।
188. ज्ञानी और छल-कपट से रहित शुद्ध मन वाले व्यक्ति को ही मंत्री बनाएं।
189. समस्त कार्य पूर्व मंत्रणा से करने चाहियें।
190. लापरवाही अथवा आलस्य से भेद खुल जाता है।
191. मंत्रणा की संपत्ति से ही राज्य का विकास होता है।
192. भाव्विश्य के अंधकार में छिपे कार्य के लिए श्रेष्ठ मंत्रणा दीपक के समान प्रकाश देने वाली है।
193. मंत्रणा के समय कर्तव्य पालन में कभी ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए।
194. मंत्रणा रूप आँखों से शत्रु के छिद्रों अथार्त उसकी कमजोरियों को देखा-परखा जाता है।
195. राजा, गुप्तचर और मंत्री तीनों का एक मत होना किसी भी मंत्रणा की सफलता है।
196. कार्य-अकार्य के तत्व दर्शी ही मंत्री होने चाहिए।
197. छ: कानों में पड़ने से मंत्रणा का भेद खुल जाता है।
198. अप्राप्त लाभ आदि राज्यतंत्र के चार आधार हैं।
199. आलसी राजा अप्राप्त लाभ को प्राप्त नहीं करता।
200. शक्तिशाली राजा लाभ को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है।
201. राज्यतंत्र को ही नीतिशास्त्र कहते हैं।
202. राजतंत्र से संबंधित घरेलू और बाह्य, दोनों कर्तव्यों को राजतंत्र का अंग कहा जाता है।
203. राजनीती का संबंध केवल अपने राज्य को समृद्धि प्रदान करने वाले मामलों से होता है।
204. ईर्ष्या करने वाले दो समान व्यक्तियों में विरोध पैदा कर देना चाहिए।
205. चतुरंगिणी सेना होने पर भी इन्द्रियों के वश में रहने वाला राजा नष्ट हो जाता है।
206. जुए में लिप्त रहने वाले के कार्य पूरे नहीं होते हैं।
207. कामी पुरुष कोई कार्य नहीं कर सकता।
208. पूर्वाग्रह से ग्रसित दंड देना लोक निंदा का कारण बनता है।
209. धन का लालची श्रीविहीन हो जाता है।
210. दंड से संपदा का आयोजन होता है।
211. दंड का भय न होने से लोग अकार्य करने लगते हैं।
212. दंडनीति से आत्मरक्षा की जा सकती है।
213. आत्मरक्षा से सबकी रक्षा होती है।
214. कार्य करने वाले के लिए उपाय सहायक होता है।
215. कार्य का स्वरूप निर्धारित हो जाने के बाद वह कार्य लक्ष्य बन जाता है।
216. अस्थिर मन वाले की सोच स्थिर नहीं रहती।
217. कार्य सिद्धि के लिए हस्त कौशल का उपयोग करना चाहिए।
218. अशुभ कार्यों को करना नहीं चाहिए।
219. समय को समझने वाला कार्य सिद्ध करता है।
220. समय का ज्ञान न रखने वाले राजा का कर्म समय के द्वारा ही नष्ट हो जाता है।
221. नीतिवान पुरुष कार्य प्रारंभ करने से पूर्व ही देश-कल की परीक्षा कर लेते हैं।
222. परीक्षा करने से लक्ष्मी स्थिर रहती है।
223. कार्य की सिद्धि के लिए उदारता नहीं बरतनी चाहिए।
224. दूध पीने के लिए गे का बछड़ा अपनी माँ के थनों पर प्रहार करता है।
225. जिन्हें भाग्य पर विश्वास नहीं होता , उनके कार्य पुरे नहीं होते।
226. प्रयत्न न करने से कार्य में विघ्न पड़ता है।
227. जो अपने कर्तव्यों से बचते हैं, वे अपने आश्रितों परिजनों का भरण-पोषण नहीं कर पाते।
228. जो अपने कर्म को नहीं पहचानता वह अँधा है।
229. प्रत्यक्ष और परोक्ष साधनों के अनुमान से कार्य की परीक्षा करें।
230. निम्न अनुष्ठानों से आय के साधन भी बढ़ते हैं।
231. विचार न करके कार्य करने वाले व्यक्ति को लक्ष्मी त्याग देती है।
232. कष्ट और विपत्ति मनुष्य को शिक्षा देने वाले श्रेष्ठ गुण है, जो साहस के साथ उनका सामना करते है, वो विजयी होते है।
233. गलती कबूल करने में और गुनाह छोड़ने में कभी देर न करे, क्योंकि सफर जितना लंबा होगा, वापसी उतनी ही मुश्किल हो जाएगी।
234. जब तक तुम दौड़ने का साहस नहीं जुटाओगे, प्रतिस्पर्धा में जीतना तुम्हारे लिए असंभव बना रहेगा।
235. फूल की सुगंध को मीती तो ग्रहण कर लेती है, पर मिट्टी की गंध को फूल ग्रहण नहीं करता।
236. अव्यवस्थित तरीके के कार्य करने वाला व्यक्ति, न समाज न सुख पता है और न ही वन में।
237. जीवन में ज्यादा रिश्ते होना जरुरी नहीं है, पर जो रिश्ते है उनमें जीवन होना जरुरी है।
238. गलत तरीके से अर्जित धन की अवहेलना करने वाले व्यक्ति को साधू मानना चाहिए।
239. खुशियाँ बहुत सस्ती है इस दुनिया में, हम ही ढूंढते हैं उसे महंगी दुकानों में।
240. एक ही देश के दो शत्रु परस्पर मित्र होते हैं।
241. आपातकाल में स्नेह करने वाला ही मित्र होता है।
242. मित्रों के संग्रह से बल प्राप्त होता है।
243. लोहे को लोहे से ही काटना चाहिए।
244. अगर माता दुष्ट है तो उसे भी त्याग देना चाहिए।
245. अगर खुद के हाथ में विष फैल रहा है तो उसे काट देना चाहिए।
246. सांप को दूध पिलाने से विष ही बढ़ता है, न कि अमृत।
247. एक बिगडैल गाय सौ कुत्तों से ज्यादा श्रेष्ठ है। अथार्त एक विपरीत स्वभाव का परम हितैषी व्यक्ति, उन सौ लोगों से श्रेष्ठ है जो आपकी चापलूसी करते है।
248. कल के मोर से आज का कबूतर भला। अथार्त संतोष सब बड़ा धन है।
249. पड़ोसी राज्यों से संधियाँ तथा पारस्परिक व्यवहार का आदान-प्रदान और संबंध विच्छेद आदि का निर्वाह मंत्रिमंडल करता है।
250. बलवान से युद्ध करना हाथियों से पैदल सेना को लड़ाने के समान है।
251. शत्रुओं से अपने राज्य की पूर्ण रक्षा करें।
252. अग्नि के समान तेजस्वी जानकर ही किसी का सहारा लेना चाहिए।
253. राजा के प्रतिकूल आचरण नहीं करना चाहिए।
254. व्यक्ति को उट-पटांग अथवा गवार वेशभूषा धारण नहीं करनी चाहिए।
255. देवता के चरित्र का अनुकरण नहीं करना चाहिए।
256. देश और फल का विचार करके कार्य आरंभ करें।
257. अज्ञानी व्यक्ति के कार्य को बहुत अधिक महत्व नहीं देना चाहिए।
258. ज्ञानियों के कार्य भी भाग्य तथा मनुष्यों के दोष से दूषित हो जाते है।
259. भाग्य का शमन शांति से करना चाहिए।
260. अपने स्वामी के स्वभाव को जानकर ही आश्रित कर्मचारी कार्य करते हैं।
261. गाय के स्वभाव को जानने वाला ही दूध का उपभोग करता है।
262. नीच व्यक्ति संमुख रहस्य और अपने दिल की बात नहीं करनी चाहिए।
263. कोमल स्वभाव वाला व्यक्ति अपने आश्रितों से भी अपमानित होता है।
264. कठोर दंड से लोग नफरत करते हैं।
265. राजा योग्य अथार्त उचित दंड देने वाला हो।
266. अगंभीर विद्वान् को संसार में सम्मान नहीं मिलता।
267. महाजन द्वार अधिक धन संग्रह प्रजा को दुःख पहुंचाता है।
268. अत्यधिक भार उठाने वाला व्यक्ति जल्दी थक जाता है।
269. सच्चे लोगों के लिए कुछ भी अप्राप्य नहीं।
270. केवल साहस से कार्य-सिद्धि संभव नहीं।
271. दान ही धन है। धर्मार्थ विरोधी कार्य करने वाला अशांति उत्पन्न करता है।
272. सीधे और सरल व्यक्ति दुर्लभता से मिलते है।
273. मछेरा जल में प्रवेश करके ही कुछ पाता है।