1. आलसी व्यक्तियों के लिए भगवान अवतार नहीं लेते, वह मेहनती व्यक्तियों के लिए ही अवतरित होते हैं, इसलिए कार्य करना आरंभ करें।
2. कमजोर न बनें, शक्तिशाली बनें और यह विश्वास रखें कि भगवान हमेशा आपके साथ है।
3. लक्ष्य किसी जादू से पूरा नहीं होता, बल्कि आपको ही अपना लक्ष्य प्राप्त करना पड़ेगा।
4. प्रगति स्वतंत्रता में निहित है। बिना स्वतंत्रता के न औद्योगिक विकास संभव है, न ही राष्ट्र के लिए शैक्षिक योजनाओं की कोई उपयोगिता है। देश की स्वतंत्रता के लिया प्रयत्न करना सामाजिक सुधारों से अधिक महत्वपूर्ण है।
5. ये सच है कि बारिश की कमी के कारण अकाल पड़ता है लेकिन ये भी सच है कि भारत के लोगों में इस बुराई से लड़ने की शक्ति नहीं है।
6. ऐसा भी हो सकता है ये भगवान की मर्जी हो कि मैं जिस वजह का प्रतिनिधित्व करता हूँ उसे मेरे आजाद रहने से ज्यादा मेरे पीड़ा में होने से अधिक लाभ मिले।
7. आप यह मालूम नहीं कर सकते कि दूसरों में आप से बेहतर क्या है, हर दिन आप अपने रिकॉर्ड तोड़ो, क्योंकि सफलता आपके और खुद के बिच लड़ाई में निहित है।
8. भारत की गरीबी पूरी तरह से वर्तमान शासन की वजह से है।
9. धर्म और व्यावहारिक जीवन अलग नहीं है। सन्यास लेना जीवन का परित्याग करना नहीं है। असली भावना सिर्फ अपने लिए काम करने की बजाए देश को अपना परिवार बना मिलजुल कर कम करना है। इसके बाद का कदम मानवता की सेवा करना है और अगला कदम ईश्वर की सेवा करना है।
10. भूविज्ञानी पृथ्वी का इतिहास वहां से उठाते हैं जहाँ से पुरातत्वविद इसे छोड़ देते हैं, और उसे और भी पुरातनता पे ले जाते हैं।
11. अगर हम किसी भी देश के इतिहास के अतीत में जाएं, तो हम अंत में मिथकों और परंपराओं के काल में पहुँच जाते हैं जो आखिरकार अभेद्य अंधकार में खो जाता है।
12. जीवन एक ताश के खेल की तरह है, सही पत्तों का चयन हमारे हाथ में नहीं है, लेकिन हमारी सफलता निर्धारित करने वाले पत्ते खेलना हाथ में है।
13. हम हमारे सामने सही रस्ते के प्रकट होने के इंतजार में अपने दिन खर्च करते हैं, लेकिन हम भूल जाते हैं कि रस्ते इंतजार करने के लिए नहीं, बल्कि चलने के लिए बने हैं।
14. अगर आप रुके और हर भौंकने वाले कुत्ते पर पत्थर फेंकेंगे तो आप कभी अपने गंतव्य तक नहीं पहुंचेंगे। बेहतर होगा कि हाथ में बिस्कुट रखें और आगे बढ़ते जाएं।
15. मानव प्रक्रिया ही ऐसी है कि हम बिना उत्सवों के नहीं रह सकते! उत्सव प्रिय होना मानव स्वभाव है! हमारे त्यौहार होने ही चाहिएं।
16. कर्तव्य पथ पर गुलाब-जल नहीं छिड़का होता है और न ही उसमें गुलाब उगते हैं।
17. भारत को लहुलुहान किया जाता रहेगा जब तक केवल कंकाल अवशेष रहे… लोगों की पूरी जीवन शक्ति सोख ली जाती है और हमें गुलामी की एक क्षीण अवस्था में छोड़ दिया जाता है।
18. जब लोहा गरम हो तभी उस पर चोट कीजिये और आपको निश्चय ही सफलता का यश प्राप्त होगा।
19. आप केवल कर्म करते जाईए, उसके परिणामों पर ध्यान मत दीजिए।
20. स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, और मैं इसे लेकर रहूँगा।
21. अगर भगवान अस्पर्शयता बर्दास्त करता है, तो मैं उसे भगवान नहीं कहूँगा।
22. गांवों में सद्भाव को नष्ट करने के लिए किसानों के नाम पर हस्तक्षेप और साहूकार के साथ धोखा है।
23. एक अच्छे अखबार के शब्द अपने आप बोल देते हैं।
24. आप मुश्किल समय में खतरों और असफलताओं के डर से बचने का प्रयास मत कीजिए। वे तो निश्चित रूप से आपके मार्ग में आएंगे ही।
25.प्रातः काल में उदय होने के लिए ही सूरज संध्या काल के अंधकार में डूब जाता है और अंधकार में जाए बिना प्रकाश प्राप्त नहीं हो सकता।
26. गर्म हवा के झोंकों में जाए बिना, कष्ट उठाए बिना, पैरों में छाले पड़े बिना स्वतंत्रता नहीं मिल सकती। बिना कष्ट के कुछ नहीं मिलता।
27. महान उपलब्धियां कभी भी आसानी से नहीं मिलती और आसानी से मिली उपलब्धियां महान नहीं होती।
28. मनुष्य का प्रमुख लक्ष्य भोजन प्राप्त करना ही नहीं है, एक कौवा भी जीवित रहता है और झूठन पर पलता है।
29. अपने हितों की रक्षा के लिए अगर हम जागरक नहीं होंगे तो दूसरा कौन होगा? हमें इस समय सोना नहीं चाहिए, हमें अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए।
30. किसी देश में विदेशी शासन का बना रहना, ये असफल शासन की निशानी है।
31. अगर तीव्र बुद्धि हो तो आसानी से सम्हा जा सकता है कि गणित काव्य होता है और काव्य में गणित।
32. जब भी कोई पार्टी शुरू होती है तो उसे गरम दल कहा जाता है, लेकिन बाद में वह नर्म दल कहकर ठंडी हो जाती है।
33. अगर हमारी लीग को 5000 रूपए चाहिए तो वो कोई भी व्यक्ति दे देता किन्तु मैं इस प्रकार धन संग्रह नहीं करना चाहता। एक-एक रूपए देने वाले 5000 लोग चाहिए। आगामी वर्षों में हमने इसी तरह होमरूल लीग के 50,000 सदस्य बनाने होंगे।
34. जब तक हम यह साबित नहीं करते कि ताकत हमारे पास है, तब तक हमारी फरियाद सुनने का किसी के पास वक्त है।
35. माया सत्य नहीं-सत्य एक परमेश्वर ही है।
36. जो वस्तु मिली नहीं है, उसके जुटाने का नाम है योग, और मिली हुई वस्तु की रक्षा करना है क्षेम।
37. जो पुरुष जिस भाव से निष्ठा रखता है, वह उस भाव के अनुरूप ही पाता है।
38. अगर मैंने स्वतंत्र भारत में जन्म पाया होता तो गणित का प्राचार्य बनकर अनुसंधान कार्य ही करता।
39. आपके विचार सही हों, आपके लक्ष्य ईमानदार हों, और आपके प्रयास संवैधानिक हों तो मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको अपने प्रयत्नों में सफलता मिलेगी।
40. अत्याचार करने वाला इतना दोषी नहीं माना जा सकता, जितना कि उसे सहन करने वाला माना जाता है।
41. अगर आप दौड़ नहीं सकते तो न दौड़ें, लेकिन जो दौड़ सकते हैं, उनकी टांग क्यों खीचते हैं?
42. दूसरों के मुंह से पानी नहीं पिया जा सकता, हमें पानी खुद पीना होगा। वर्तमान व्यवस्था हमें दुसरे के मुंह से पानी पीने के लिए मजब उर करती है। हमें अपने कुएं से अपना पानी खींचना और पानी पीना चाहिए।
43. आपको ये मानना चाहिए कि आप जो श्रम करेंगे उससे उत्पन्न फसल को आप ही काटेंगे। सदैव ऐसा नहीं होता। हमें अपनी पूर्ण शक्ति से श्रम करना चाहिए और उसका परिणाम आने वाली पीढ़ी के भोगने के लिए छोड़ देना चाहिए। याद रखिए, आप जो आम आज खा रहे हैं उनके पेड़ आपने नहीं लगाए थे।
44. आपका दोष क्षमता की कमी या साधनों की दृष्टि से नहीं है, वरना दोष इस बात में है कि आपमें संकल्प का आभाव है। आपने उस संकल्प को अपने में उत्पन्न नहीं किया है जो आपको पहले ही उतन्न कर लेना था। संकल्प ही सब कुछ है। आपको संकल्प शक्ति इतना साहस दे सकती है कि आपको लक्ष्य पाने से कोई नहीं रोक सकता।
45. मराठी में एक कहावत है-घोडा अड़ा क्यों? पान सड़ा क्यों? और रोटी जली क्यों? इन सबका एक ही उत्तर है-पलटा न था।
46. छोटा हो या बड़ा, धनी हो या निर्धन प्रत्येक को अपने अधिकार के संबंध में सोचना चाहिए।
47. जब अहंकार अपनी शक्ति के भिन्न-भिन्न पदार्थ उत्पन्न करने लगता है, तब उसी में एक बार तमोगुण का उत्कर्ष होकर एक ओर इंद्रिय-सृष्टी की मूलभूत ग्यारह इंद्रियाँ उत्पन्न होती हैं और दूसरी ओर उससे निरिन्द्रिय-सृष्टी के मूलभूत पांच द्रव्य उत्पन्न होते हैं। परन्तु प्रकृति की सूक्ष्मता अब तक स्थिर रही है, अत: अहंकार से उत्पन्न ये सोलह तत्व ही रहते हैं।
48. हमें किसी प्रकार की हिंसा का प्रयोग नहीं करना चाहिए। चूँकि हमारा संघर्ष संवैधानिक होगा, इसके लिए मेहनत, साहस की आवश्यकता होगी। हमें साहसपूर्वक और निर्भीक होकर सरकार को बता देना चाहिए कि हम क्या चाहते हैं।
49. आत्मा से तात्पर्य है परमेश्वर, और चित्त को परमेश्वर के साथ परिचित किए बिना शक्ति नहीं मिलती। अगर एक शरीर जीर्ण हो जाता है तो आत्मा दूसरा शरीर धारण कर लेता है। गीता हमें यही विश्वास दिलाती है। इस आत्मा को कोई शस्त्र काट नहीं सकता, अग्नि इसे जला नहीं सकती, जल इसे गीला नहीं कर सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकती। मैं और आगे कहता हूँ-कोई भी सी.आई.डी. इसे जला नहीं सकती। इसी सिद्धांत को मैं सामने बैठे पुलिस अधिक्धक पर तथा सभा में आमंत्रित कलेक्टर पर और सरकारी आशुलिपिक पर, जो मेरे भाषणों को संक्षेप में लिख रहा है, लागू करता है। यह सिद्धांत मर भले ही जाए, पर लुप्त नहीं होगा।
50. इन संसार की संपूर्ण वस्तुओं पर न्यायालय की अपेक्षा कहीं अधिक श्रेष्ठ सत्ता का शासन चलता है। और मुझे लगता है कि शायद ईश्वर की यही इच्छा होगी कि जो काम मैंने अपने सिर लिया है, उसकी प्रगति मेरे मुक्त रहने के बजाए जेल में जाकर दुःख सहने से अधिक होगी।
51. किसी भी उपदेश को लीजिए, आप देखेंगे कि उसका कुछ-कुछ कारण अवश्य रहता ही है, और उपदेश की सफलता-हेतु शिष्य के मन में उस उपदेश का ज्ञान प्राप्त कर लेने की इच्छा भी पहले से जाग्रत रहनी चाहिए।
52. अंग्रेजी शिक्षा ने लोगों में नयी आकांक्षाएं और आदर्श पैदा कर दिए हैं और जब तक ये राष्ट्रिय आकांक्षाएं पूर्ण नहीं होती, तब तक प्रशासनिक अधिकारीयों और जनता के बीच उत्पन्न कटुता को सत्ता के विकेंद्रीयकरण की योजना से समाप्त करने की आशा करना व्यर्थ है, चाहे इसके अन्य प्रभाव कुछ भी हों।
53. मुझे पूर्ण विश्वास है कि वह ज्ञान जो गीता में केन्द्रित है और सात सौ श्लोकों में निबद्ध है, विश्व के किसी भी दर्शन से-चाहे वह पाश्चात्य हो या और हो-कम नहीं है। ज्ञान-भक्ति-युक्त कर्मयोग ही गीता का सार है।
54. ज्ञान को हम निर्धनता श्रेणी में नहीं ला सकते, क्योंकि इसमें प्रत्येक प्रकार के धन को प्राप्त करने की असीमित क्षमता होती है। बिना विवेक का जीवन तो बिना ब्रेक की गाड़ी के समान ही है।
55. दान करने को अपना धर्म समझकर निष्काम बुद्धि से दान करना चाहिए और यश हेतु एवं अन्य फल की आशा से दान करना-इन दो कृत्यों का बाहरी परिणाम भले ही एक समान है, फिर भी गीता में पहले दान को सात्विक और दुसरे को राजस कहा गया है। और यदि वही दान कुपात्रों को दिया जाए तो उसे तामस कहा गया है।
56. सुख-दुःख भले ही द्विविध हो या त्रिविध, पर इसमें कोई संशय नहीं कि दुःख प्राप्त करने की इच्छा कभी भी, किसी भी मनुष्य को नहीं होती।
57. मुद्रित पुस्तकों में पाई जाने वाली देवनागरी प्राचीनतम लिपि है, अतः यह सभी आर्यन भाषाओँ की सामान्य लिपि बनने की अधिकारिणी है।
58. जो देश की सेवा हेतु आवश्यक सुधार लाना चाहता है, उसे बड़ी-बड़ी कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। वह महसूस करता है कि कानूनों का पालन न करना उचित नहीं है और वह खुद को एक अजीब धर्मसंकट में पाता है।
59. धर्म शब्द का अर्थ है-बंधन। धृ धातु का अर्थ है-धारण करना या वहन करना। हमें आत्मा का परमात्मा से संबंध धारण करना है और मनुष्य का मनुष्य से। अतः धर्म का अर्थ हुआ-ईश्वर और मनुष्य के प्रति अपने कर्तव्यों को धारण करना और उसका निर्वाह करना।
60. नम्रता, प्रेमपूर्ण व्यवहार तथा सहनशीलता से मनुष्य तो क्या देवता भी वश में हो जाते हैं।
61. जब किसी धर्म कार्य के लिए या लोकोपयोगी कार्य के लिए कोई लखपति एक हजार रूपए और कोई निर्धन एक रूपए देता है, तब दोनों की नैतिक योग्यता एकसमान होती है।
62. राष्ट्र में नेता का वह स्थान है जो पूरे शरीर में प्राणों को प्राप्त है। जो नेता समय का रुख देखकर नहीं बदलता, समय उसको पीछे छोड़कर आगे निकल जाता है।
63. अगर किसी सिद्ध पुरुष को अपना स्वार्थ न साधना हो और फिर भी अगर वह किसी योग्य पुरुष को ऐसी वस्तु प्राप्त करने में सहायता करे, जो उसके योग्य न हो तो सिद्ध पुरुष को योग्य साधू समाज की हानि करने का पाप लगेगा।
64. मैं नर्क में भी उत्तम पुस्तकों का स्वागत करूँगा, क्योंकि इनमें वह शक्ति है कि जहाँ ये होंगी, वहीं स्वतः स्वर्ग बन जाएगा।
65. भारतवर्ष ही हमारी मातृभूमि और देवता है।
66. सफलता के पांच प्रमुख कारकों में दैव यानि भाग्य एक है। वह ईश्वरदत्त एक अवसर है जिसका लाभ उठाना आप पर निर्भर करता है।
67. जैसे मनुष्य भवन निर्माण का काम इस भय से रोक नहीं देता कि भवन में चूहे अपना बिल बना लेंगे, वैसे हमें अपना काम इस भय से नहीं रोक देना चाहिए कि सरकार अप्रसन्न हो जाएगी।
68. उपास्य ब्रह्मा के सगुण रहने पर भी जब उसका अव्यक्त के स्थान पर व्यक्त रूप स्वीकृत किया जाता है, तब वह भक्ति कहलाता है।
69. मनुष्य चाहे इस संसार में रहे या न रहे, किन्तु प्रकृति अपने गुण-धर्म के अनुसार सदैव अपने व्यापर में प्रवृत रहेगी।
70. इस शरीरधारी कारखाने में मन एक मुंशी है, जिसके पास बाहर का माल ज्ञानेंद्रियों के द्वारा भेजा जाता है और यह मुंशी उस माल की जाँच करता है।
71. सत्य किसी एक व्यक्ति की बपौती नहीं है, यह तो सार्वभौमिक और सर्वव्यापी है।
72. माता, पिता तथा गुरु आदि वन्दनीय एवं पूजनीय पुरुषों की पूजा तथा सेवा करना सर्वमान्य धर्मों में से एक प्रधान धर्म समझा जाता है।
73. राष्ट्र के नैतिक, भौतिक तथा बौद्धिक क्षेत्र में होनेवाली प्रगति उसी स्वतंत्रता पर आश्रित है, जिससे हमें वंचित रखा गया है।
74. केवल किसी के प्राण हरना ही हिंसा नहीं है, अपितु किसी सचेतन प्राणी को किसी भी प्रकार से दुखी करना भी हिंसा में ही आता है।