पंडित रामप्रसाद बिस्मिल जी किसी भी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उनके द्वारा लिखे गए सरफरोशी की तमन्ना जैसे अमर गीत ने हर भारतीय के दिल में जगह बनाई और अंग्रेजों से भारत देश की आजादी के लिए वो चिंगारी छेड़ी जिसने ज्वाला का रूप लेकर ब्रिटिश शासन के भवन को लाक्षाग्रह में बदल दिया।
ब्रिटिश साम्राज्य को दहला देने वाले काकोरी कांड को रामप्रसाद बिस्मिल जी ने ही अंजाम दिया था। देशभक्ति की भावना से भरी हुई हमेशा क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानियों के द्वारा दोहराई जाने वाली इन पंक्तियों के रचियता राम प्रसाद बिस्मिल उन महान स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे जो देश की आजादी के लिए अंग्रेजी शासन से संघर्ष करते हुए शहीद हो गए थे।
इन्होने वीर रस से भरी हुई, लोगों के दिलों को जोश से भर देने वाली अनेक कविताएँ लिखीं। इन्होने अनेक भावविहल कर देने वाली गद्य रचनाएँ भी लिखी। इनकी क्रांतिकारी गतिविधियों की वजह से सरकार द्वारा इन पर मुकदमा चलाकर फांसी की सजा दे दी गई थी। इन्होने अपने देश को गुलामी की बेड़ियों से मुक्त करने के लिए अपना सबकुछ न्यौछावर कर दिया था।
राम प्रसाद बिस्मिल का जन्म :
राम प्रसाद बिस्मिल जी का जन्म 11 जून, 1897 में उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर जिले में हुआ था। राम प्रसाद बिस्मिला के पिता का नाम मुरलीधर था और माता का नाम मूलमती था। बिस्मिल जी के पिता मुरलीधर कचहरी में सरकारी स्टॉम्प बेचा करते थे और उनकी माता मूलमति एक कुशल गृहिणी थीं।
राम प्रसाद बिस्मिल के पूर्वज :
रामप्रसाद बिस्मिल जी के दादा जी मूल रूप से ग्वालियर राज्य से थे। इनका पैत्रक क्षेत्र ब्रिटिश शासनकाल में चंबल नदी के किनारे तोमरघार प्रांत के नाम से जाना जाता था। इस प्रदेश में रहने वाले लोग निर्भीक, साहसी और अंग्रेजों से सीधे रूप से चुनौती देने वाले थे।
रामप्रसाद बिस्मिल जी में भी यहीं का पैतृक खून था जिसका प्रमाण उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांतिकारी गतिविधियों को कार्यान्वित करके दिया था। बिस्मिल जी के दादा जी नारायणलाला को पारिवारिक झगड़ों की वजह से अपना गाँव छोड़ना पड़ा था। नारायणलाल अपने दोनों पुत्रों मुरलीधर और कल्याणमल को लेकर शाहजहाँपुर आ गए थे और वहीं पर रहने लगे।
इनके दादा जी ने शाहजहाँपुर आकर एक दवा बेचने वाले की दुकान पर 3 रूपए प्रति महीने की नौकरी की थी। नारायण लाल के यहाँ आने के वक्त इस क्षेत्र में भीषण अकाल पड़ रहा था। ऐसे वक्त में इनकी दादी ने बड़ी कुशलता से अपनी गृहस्थी को संभाला था।
कुछ समय पश्चात ही इनकी दादी ने आर्थिक तंगी को दूर करने के लिए तीन-चार घरों में जाकर पिसाई का काम शुरू कर दिया और काम से वापस आकर अपने बच्चों के लिए खाना बनाती थी। इनके परिवार ने मुसीबतों का सामना करके कष्टों के बाद खुद को स्थापित करके समाज में अपनी प्रतिष्ठित जगह बनाई थी।
इनके दादा जी ने कुछ वक्त बाद नौकरी छोडकर पैसे, दुअन्नी, चवन्नी आदि बेचने की दुकान शुरू कर दी जिससे अच्छी आमदनी होने लगी थी। नारायणलाल ने अपने बड़े बेटे को थोड़ी बहुत शिक्षा दिला दी और जीजान से मेहनत करके एक मकान भी खरीद लिया।
बिस्मिल के पिता जी मुरलीधर के विवाह के योग्य होने पर इनकी दादी जी ने अपने मायके में इनका विवाह कर दिया था। मुरलीधर जी अपने पिता जी के साथ कुछ समय अपने ननिहाल में रहने के बाद अपने परिवार और पत्नी को विदा कराकर शाहजहाँपुर आ गए थे।
राम प्रसाद बिस्मिल जी की शिक्षा :
बिस्मिल जी को 6 साल की उम्र में पढने के लिए बैठा दिया गया था। इनके पिताजी इनकी पढाई पर विशेष ध्यान देते थे क्योंकि वो पढाई का वास्तविक महत्व बहुत अच्छी तरह से समझते थे। उनके पिता जी को पता था कि अगर वो थोड़ी सी पढाई भी नहीं कर पाते तो जिस प्रतिष्ठित स्थान पर वो थे उसपर कभी भी नहीं पहुंच पाते।
वो बिस्मिल की पढाई को लेकर बहुत सख्त रहते और इनके द्वारा जरा भी लापरवाही होने पर बहुत कठोरता से व्यवहार करते और इन्हें बहुत बुरी तरह पिटते थे। बिस्मिल जी की आत्मकथा के तथ्यों से यह पता चलता है कि एक बार इनके पिता इन्हें पढ़ा रहे थे उनके द्वारा बार-बार कोशिश कराने के बाद भी ये उ अक्षर नहीं लिख पा रहे थे।
कचहरी जाने का वक्त हो जाने की वजह से इनके पिता इन्हें उ अक्षर लिखने का अभ्यास करने के लिए कह गए थे। उनके जाने के साथ ही बिस्मिल भी खेलने के लिए चले गए थे। शाम को इनके पिता ने कचहरी से आने के बाद उ लिखकर दिखाने के लिए कहा। बहुत बार अभ्यास करने के बाद भी वे सही तरीके से उ नहीं बना पाए थे।
इस पर इनके पिता ने नाराज होकर इतनी पिटाई लगाई कि जिस छड से उन्होंने उन्हें पीटा था वो लोहे की छड भी टेडी हो गई थी। सात साल की उम्र में इन्हें उर्दू की शिक्षा प्राप्त करने के लिए मौलवी के पास भेजा गया था जिनसे इन्होंने उर्दू सीखी थी। इसके बाद इन्हें स्कूल में भर्ती कराया गया था।
लगभग 14 साल की उम्र में बिस्मिल ने चौथी कक्षा को उत्तीर्ण किया। इन्होने कम उम्र में ही उर्दू, हिंदी और इंग्लिश भाषा की शिक्षा प्राप्त की। अपनी कुछ पारिवारिक परिस्थितियों की वजह से इन्होने 8वीं के आगे की पढाई नहीं की थी।
राम प्रसाद बिस्मिल का प्रारंभिक जीवन :
राम प्रसाद बिस्मिल जी का जन्म एक हिन्दू परिवार में हुआ था जो हिन्दू धर्म की सभी मान्यताओं का अनुसरण करता था। बिस्मिल जी के माता-पिता को बिस्मिल जी से पहले एक और पुत्र प्राप्त हो चुका था लेकिन जन्म के कुछ महीनों के बाद ही किसी अज्ञात बीमारी की वजह से उसकी मृत्यु हो गई थी जिससे इनके जन्म के वक्त से ही इनकी दादी बहुत ही सावधान हो गई थीं।
वे हर स्थान पर उनकी सलामती की दुआएं मांगती थीं। जब राम प्रसाद जी दो महीने के थे तब इनका स्वास्थ्य भी अपने स्वर्गवासी भाई की तरह ही गिरने लगा। इन्हें किसी भी दवा से कोई फायदा नहीं होता था। अतः किसी ने सलाह दी कि इनके ऊपर से सफेद खरगोश का उतारा करके उसे छोड़ दिया जाए अगर कोई समस्या होगी तो यह खरगोश मर जाएगा।
ऐसा ही किया गया और सब लोगो को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि थोड़ी दूर जाने के बाद ही वह खरगोश मर गया और इसके बाद से उनका स्वास्थ्य धीरे-धीरे ठीक होने लगा। जब राम प्रसाद बिस्मिला जी केवल सात साल के थे तब से उनके पिता उन्हें हिंदी अक्षरों का ज्ञान कराने लगे।
उस समय उर्दू भाषा का भी बोलबाला था इसलिए हिंदी भाषा की शिक्षा के साथ-साथ बालक को उर्दू पढ़ने के लिए एक मौलवी साहब के पास भेजा जाता था। बिस्मिला जी के पिता उनकी शिक्षा पर विशेष ध्यान देते थे और पढाई के मामले में जरा भी लापरवाही करने पर मार भी पडती थी।
8 वीं कक्षा तक वे हमेशा कक्षा में प्रथम आते थे लेकिन कुसंगति की वजह से उर्दू मिडिल परीक्षा में वह निरंतर दो साल अनुत्तीर्ण हो गए। बिस्मिला की इस अवनति से सभी को बहुत दुःख हुआ और दो बार एक ही परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने पर उनका मन भी उर्दू की पढाई से उठ गया था। इसके बाद उन्होंने अंग्रेजी पढने की इच्छा व्यक्त की थी।
उनके पिता अंग्रेजी भाषा पढने के पक्ष में नहीं थे लेकिन बिस्मिला जी की माँ के कहने पर वे मान गए थे। 9वीं कक्षा में जाने के बाद बिस्मिला जी आर्य समाज के संपर्क में आए और उसके बाद उनके जीवन की दशा ही बदल गई। आर्य समाज मंदिर शाहजहाँपुर में वे स्वामी सोमदेव के संपर्क में आए।
जब बिस्मिला 18 साल के थे तब स्वाधीनता सेनानी भाई परमानंद को ब्रिटिश सरकार ने गदर षडयंत्र में शामिल होने के लिए फांसी की सजा सुनाई। इस खबर को पढकर बिस्मिल जी बहुत अधिक विचलित हुए और मेरा जन्म शीर्षक से एक कविता की रचना की और उसे स्वामी सोमदेव को दिखाया।
इस कविता में देश को अंग्रेजी हुकुमत से मुक्ति दिलाने की प्रतिबद्धिता दिखाई दी थी। इसके बाद रामप्रसाद जी ने अपनी पढाई छोड़ दी और सन् 1916 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन के दौरान कांग्रेस के नरमदल के विरोध के बाद भी लोकमान्य बालगंगाधर तिलक की पूरे लखनऊ शहर में शोभायात्रा निकली थी।
इसी अधिवेशन के दौरान उनकी मुलाकात केशव बलिराम हेडगेवार , सोमदेव शर्मा और मुकुंदीलाल आदि से हुई थी। इसके बाद कुछ साथियों की सहायता से उन्होंने अमेरिका की स्वतंत्रता का इतिहास नाम की किताब प्रकाशित की जिसे उत्तर प्रदेश सरकार ने प्रकाशित होते ही प्रतिबंधित कर दिया था।
राम प्रसाद बिस्मिल के कार्य :
जब कभी भारत के स्वाधीनता इतिहास में महान क्रांतिकारियों की बात होती है तब भारत माँ के इस वीर पुत्र का जिक्र अवश्य होता है। राम प्रसाद बिस्मिल एक महान क्रांतिकारी ही नहीं थे बल्कि उच्च कोटि के कवि, शायर, अनुवादक, बहुभाषाविद और साहित्यकार भी थे।
इन्होंने अपनी बहादुरी और सूझ-बूझ से अंग्रेजी हुकुमत की नींद उड़ा दी और भारत की आजादी के लिए सिर्फ 30 साल की उम्र में अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। बिस्मिल उपनाम के अलावा वे राम और अज्ञात के नाम से भी लेख और कविताएँ लिखते थे। उनकी प्रसिद्ध रचना सरफरोशी की तमन्ना गाते हुए पता नहीं कितने क्रांतिकारी देश की आजादी के लिए फांसी के तख्ते पर झूल गए थे।
राम प्रसाद बिस्मिला जी ने मैनपुरी कांड और काकोरी कांड को अंजाम देकर अंग्रेजी सरकार के साम्राज्य को हिला दिया था। करीब 11 साल के क्रांतिकारी जीवन में उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं और खुद ही उन्हें प्रकाशित किया। उनके जीवनकाल में प्रकाशित हुई लगभग सभी किताबों को ब्रिटिश सरकार ने जब्त कर लिया था।
माँ के व्यक्तित्व का प्रभाव :
अपनी माँ के व्यक्तित्व का रामप्रसाद बिस्म्मिल जी पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा था। अपने जीवन की सभी सफलताओं का श्रेय उन्होंने अपनी माँ को ही दिया है। माँ के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हुए उन्होंने लिखा है कि अगर मुझे ऐसी माता नहीं मिलती तो मैं भी अतिसाधारण मनुष्यों की तरह संसार चक्र में फंसकर जीवन निर्वाह करता।
शिक्षा के अलावा क्रांतिकारी जीवन में भी उन्होंने वैसे ही मेरी मदद की जैसे मेजिनी की उनकी माता ने की थी। माता जी का मेरे लिए सबसे बड़ा उपदेश यही था कि किसी के प्राण मत लो। उनका कहना था कि अपने शत्रु को भी कभी प्राण दंड नहीं देना। उनके इस आदेश की पूर्ति करने के लिए मुझे विवशतापूर्ण एक-दो बार अपनी प्रतिज्ञा भंग करनी पड़ी।
पारिवारिक परिवेश या वातावरण :
रामप्रसाद बिस्मिल जी के जन्म के समय तक इनका परिवार पूर्ण रूप से समाज में एक प्रतिष्ठित और संपन्न परिवारों में गिना जाने लगा था। इनके पिताजी ने विवाह के बाद नगरपालिका में 15 रूपए प्रति महीने की नौकरी कर ली और जब वो इस नौकरी से ऊब गए तो इन्होंने वो नौकरी छोडकर कचहरी में सरकारी स्टॉम्प बेचने का काम शुरू कर दिया।
इनके पिता मुरलीधर सच्चे दिल और स्वभाव से ईमानदार थे। इनके सरल स्वभाव की वजह से समाज में इनकी प्रतिष्ठा खुद ही बढ़ गई थी। बिस्मिल जी के दादाजी इनसे बहुत प्यार करते थे। उन्हें गाय पालने का काफी शौक था इसलिए खुद ग्वालियर जाकर बड़ी-बड़ी गाय खरीदकर लाते थे। बिस्मिल जी से स्वभाविक प्रेम होने की वजह से अपने साथ बड़े प्रेम से रखते थे।
इन्हें खूब दूध पिलाते थे और व्यायाम भी करवाते थे। जब संध्या के समय पूजा के लिए मंदिर जाते थे तो बिस्मिल को अपने कंधों पर बिठाकर अपने साथ ले जाते थे। बिस्मिल पर अपने पारिवारिक परिवेश और पैतृक गाँव का प्रभाव बहुत ज्यादा पड़ा जो उनके चरित्र में मौत के वक्त तक भी परिलक्षित होता था।
तत्कालीन परिवेश का प्रभाव :
कुमार अवस्था में पहुंचते ही बिस्मिल जी को उर्दू के उपन्यास पढने का बहुत शौक लग गया था। नए-नए उपन्यास खरीदने के लिए इन्हें रुपयों की जरूरत होने लगी थी। अगर वो उपन्यास के लिए अपने पिता से पैसे मांगते तो बिलकुल नहीं मिलते इसलिए इन्होने अपने पिता के सन्दुक से पैसे चुराने शुरू कर दिए।
इसके साथ ही इन्हें नशा करने और सिगरेट पीने की भी लत लग गई थी। जिस पुस्तक विक्रेता से बिस्मिल जी उपन्यास खरीदकर पढ़ते थे वे उनके पिता जी का परिचित था। उसने इस बात की शिकायत उनके पिता से कर दी जिससे घर में इनकी हरकतों पर नजर रखी जाने लगी।
इस पर इन्होंने उस पुस्तक विक्रेता से पुस्तकें खरीदना छोड़ दिया और किसी और से पुस्तकें खरीदकर पढने लगे। लेकिन ऐसा कहा जाता है कि झूठ छुपाए नहीं छुपता है। यह कहावत बिस्मिल जी पर पूरी तरह से चरितार्थ हुई थी। एक दिन ये नशे की हालत में अपने पिता के संदूक से पैसे चुरा रहे थे।
होश में न होने की वजह से इनसे संदूक खटक गई और आवाज को सुनकर इनकी माँ जाग गईं व उन्होंने इन्हें चोरी करते हुए देख लिया। इससे इनके सभी रहस्य खुल गए। जब इनकी तलाशी ली गई तो इनके पास से बहुत से उपन्यास और पैसे मिले।
बिस्मिल जी की सच्चाई से पर्दा उठने के बाद संदूक का ताला बदल दिया गया और उनके पास से मिले उपन्यासों को जलाने के साथ-साथ उनकी हर छोटी-छोटी हरकतों पर नजर रखी जाने लगी। अपनी इन्हीं गलत हरकतों की वजह से ही वो निरंतर मिडिल परीक्षा में दो बार फेल भी हुए थे। कठोर प्रतिबंधों की वजह से इनकी आदतें छूटी नहीं परंतु बदल अवश्य गईं।
उद्दण्ड स्वभाव :
रामप्रसाद बिस्मिल जी अपने बचपन में बहुत शरारती और उद्दण्ड स्वभाव के थे। दूसरों के बागों के फल तोड़ने और अन्य शरारतें करने में उन्हें बहुत आनन्द आता था। इस पर उन्हें अपने पिता जी के क्रोध का भी सामना करा पड़ता था। वे बुरी तरह से पिटते थे लेकिन इसका भी उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। एक बार किसी के पेड़ से आडू तोड़ने पर उन्हें इतनी मार पड़ी थी कि वह दो दिनों तक बिस्तर से नहीं उठ सके थे।
किशोर अवस्था में बुरी आदतें :
यह एक कडवा सच है कि अभिभावकों की हर अच्छी-बुरी आदतों का प्रभाव बच्चों पर जरुर पड़ता है। बेशक से बच्चे अपने बड़ों की बुरी आदतों का विरोध नहीं कर पाते लेकिन उनके अचेतन मन में एक विरोध की भावना घर कर जाती है। कभी-कभी बच्चे खुद भी उन बुरी आदतों की तरफ आकृष्ट हो जाते हैं क्योंकि उनका स्वभाव ही जिज्ञासु होता है।
बच्चे के साथ मार-पीट और कठोर व्यवहार उसे जिद्दी बना देता है। बिस्मिल जी के एक मित्र थे चटर्जी जिनकी दवाओं की दुकान थी। चटर्जी अनेक प्रकार के नशों के आदि थे। उन्हें उनसे अगाध प्रेम था जो उनके दोस्त में दुर्गुण थे वे सभी बिस्मिल जी में भी आ गए।
आत्मसुधार के प्रयास के लिए नया रास्ता :
रामप्रसाद बिस्मिल के आत्मसुधार की कोशिशों पर इनकी दादी और इनकी माँ के स्वभाव का बहुत अधिक प्रभाव पड़ा। इन्होंने अपनी की साहसिक प्रवृत्ति को सुना और महसूस किया था साथ-साथ इनकी माँ विद्वान और बुद्धिमान थी जिससे इन्हें बुरी प्रवृत्ति से छुटकारा पाने में बहुत हद तक मदद मिली थी।
उसी वक्त इनके घर के पास के ही मंदिर में एक विद्वान पंडित आकर रहने लगे थे। बिस्मिल उनके चरित्र से प्रभावित हुए और उनके साथ रहने लगे थे। उस पुजारी के सानिध्य में रहते हुए इन्हें खुद ही अपने दुर्व्यसनों से नफरत होने लगी थी। दूसरी ओर स्कूल में इनकी मुलाकात सुशील चंद्र सेन से हुई। ये उनके घनिष्ट मित्र बन गए। सेन के संपर्क में आकर इन्होने सिगरेट पीना भी छोड़ दिया।
मंदिर के पुजारी जी के साथ रहते हुए बिस्मिल जी ने देव पूजा करने की पारंपरिक रीतियों को सीख लिया था। वो दिन रात भगवान की पूजा करने लगे थे। इन्होंने व्यायाम करना भी शुरू कर दिया जिससे इनका शरीर मजबूत होने लगा। इस तरह की कठिन साधना शक्ति से बिस्मिल का मनोबल बढ़ गया और किसी भी काम को करने के लिए दृढ संकल्प करने की प्रवृत्ति भी विकसित हुई।
बुराईयों से मुक्ति :
अपनी इन बुरी आदतों की वजह से बिस्मिल जी मिडिल कक्षा में दो साल अनुत्तीर्ण हो गए थे। उनकी इच्छा पर उन्हें अंग्रेजी स्कूल में प्रवेश दिलवा दिया गया था। उनके घर के पास में एक मंदिर था। इन्हीं दिनों इस मंदिर में एक नए पुजारी जी आ गए जो बड़े ही उदार और चरित्रवान व्यक्ति थे।
बिस्मिल जी अपने दादाजी के साथ पहले से ही मंदिर में जाने लगे थे। नए पुजारीजी से भी बिस्मिल जी प्रभावित हुए थे। वे प्रतिदिन मंदिर में आने-जाने लगे थे। पुजारी जी के संपर्क में वह पूजा-पाठ सीखने लगे। पुजारी जी पूजा पाठ के साथ-साथ उन्हें संयम-सदाचार, ब्रह्मचर्य का उपदेश भी देते थे। इन सबका बिस्मिल जी पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा।
वे समय का सदुपयोग करने लगे। उनका ज्यादातर समय पढने और ईश्वर की उपासना में ही व्यतीत होने लगा। उन्हें इस काम में बहुत आनन्द आने लगा था। इसके साथ ही वे व्यायाम भी नियमित रूप से करने लगे थे। उनकी सभी बुरी आदतें छूट गई लेकिन सिगरेट को छोड़ना थोडा मुश्किल लग रहा था। इस समय वह रोज लगभग 50 से 60 सिगरेट पी जाते थे।
इस बुराई को न छोड़ पाने का उन्हें दुःख था। वह समझते थे कि उनकी बुरी आदतें कभी नहीं छूट पाएंगी। उर्दू स्कूल को छोडकर उन्होंने मिशन स्कूल की पांचवी कक्षा में नाम लिखा लिया। यहाँ पर उनका अपने सहपाठी सुशीलचन्द्र सेन से विशेष प्रेम हो गया। अपने इसी सहपाठी के संपर्क में आने से उनकी सिगरेट पीने की आदत भी छूट गई।
नया विश्वास नया जीवन :
जिन दिनों राम प्रसाद बिस्मिल जी अपने घर के पास वाले मंदिर में ईश्वर की आराधना करते थे तभी उनकी मुलाकात मुंशी इंद्रजीत से हुई जो आर्य समाजी विचारधारा के थे। उनका मंदिर के पास ही रहने वाले किसी सज्जन के घर आना जाना था। बिस्मिल जी की धर्म में अभिरुचि देखकर मुंशी इंद्रजीत ने उन्हें संध्या उपासना करने की सलाह दी।
बिस्मिल जी ने संध्या के बारे में उनसे विस्तार से पूछा। मुंशी जी ने संध्या का महत्व और उपासना की विधि उन्हें समझाई। इसके बाद उन्होंने बिस्मिल जी को आर्य समाज के सिद्धांतों के विषय में भी बताया और पढ़ने के लिए सत्यार्थ प्रकाश दिया। सत्यार्थ प्रकाश पढ़ने पर बिस्मिल जी के विचार में एक अभूतपूर्व परिवर्तन आया था।
उन्हें वैदिक धर्म को जानने का मौका प्राप्त हुआ। इससे उनके जीवन में नए विचारों और विश्वासों का जन्म हुआ। उन्हें एक नया जीवन मिला। उन्हें सत्य, संयम, ब्रह्मचर्य का महत्व आदि समझ में आया था। उन्होंने अखंड ब्रह्मचर्य व्रत का प्रण किया इसके लिए उन्होंने अपनी पूरी जीवनचर्या ही बदल डाली।
आर्य समाज की तरफ झुकाव और ब्रह्मचर्य का पालन :
राम प्रसाद बिस्मिल जी अब नियम पूर्वक मंदिर में रोज पूजा करते थे। एक दिन मुंशी इंद्रजीत ने इन्हें पूजा करते हुए देखा और इनसे बहुत ज्यादा प्रभावित हुए। वो इनसे मिले और संध्या वंदना करने की सलाह दी। इस पर बिस्मिल ने उनसे संध्या क्या है यह प्रश्न पूछा।
मुंशी जी ने इन्हें आर्य समाज के कुछ उपदेश देते हुए इन्हें संध्या करने की विधि बताई और साथ में स्वामी दयानंद द्वारा रची गई सत्यार्थ प्रकाश पढने के लिए दी। बिस्मिल जी अपनी दैनिक दिनचर्या को करने के साथ-साथ सत्यार्थ प्रकाश का अध्धयन करने लगे।
इसमें बताए गए स्वामी जी के उपायों से बिस्मिल जी बहुत अधिक प्रभावित हुए थे। पुस्तक में स्वामी जी द्वारा बताए गए ब्रह्मचर्य के नियमों का पूर्ण रूप से पालन करने लगे। इन्होने चारपाई को छोडकर तख्त या धरती और केवल एक कंबल बिछाकर सोना शुरू कर दिया।
रात के समय भोजन करना छोड़ दिया यहाँ तक कि कुछ समय के लिए इन्होंने नमक खाना भी छोड़ दिया। प्रतिदिन सुबह 4 बजे उठकर व्यायाम आदि करते। इसके बाद स्नान आदि करके 2 से 3 घंटों तक भगवान की पूजा करने लगे। इस प्रकार ये पूरी तरह से स्वस्थ हो गए।
आर्य समाज के कट्टर अनुयायी और पिता से विवाद :
स्वामी दयानंद जी की बातों का राम प्रसाद बिस्मिल जी पर इतना घर प्रभाव पड़ा कि ये आर्य समाज के सिद्धांतों का पूर्ण रूप से अनुसरण करने लगे और आर्य समाज के कट्टर अनुयायी बन गए थे। इन्होने आर्य समाज द्वारा आयोजित सम्मेलनों में भाग लेना शुरू कर दिया।
इन सम्मेलनों में जो भी सन्यासी महात्मा आते बिस्मिल जी उनके प्रवचनों को बहुत ही ध्यान के साथ सुनकर उन्हें अपनाने की पूरी कोशिश करते थे। बिस्मिल जी को प्रणायाम सीखने का बहुत शौक था। अतः जब भी कोई सन्यासी आता ये उसकी पूरी तरह समर्पित होकर सेवा करते थे। जब ये सातवीं कक्षा में थे उस समय इनके क्षेत्र में सनातन धर्म का अनुसरण करने वाले पंडित जगत प्रसाद जी आए थे।
उन्होंने आर्य समाज की आलोचना करते हुए इस धर्म का खंडन करना आरंभ कर दिया था। आर्य समाज के समर्थकों ने इसका विरोध किया। अपने-अपने धर्म को अधिक श्रेष्ठ साबित करने के लिए सनातन-धर्मी पंडित जगत प्रसाद और आर्य समाजी स्वामी अखिलानंद के मध्य शास्त्रार्थ हुआ। उनकी पूरी शास्त्रार्थ संस्कृत में हुई थी।
जिसका जनसमूह पर अच्छा प्रभाव पड़ा था। आर्य समाज में आस्था होने की वजह से बिस्मिल जी ने स्वामी अखिलानंद की सेवा की लेकिन दोनों धर्मों में एक-दूसरे से खुद को श्रेष्ठ साबित करने की होड़ लगी हुई थी जिसका प्रमाण अपने धर्म के अनुयायियों की संख्या में वृद्धि करके ही दिया जा सकता था। जिससे किसी सनातन धर्मी ने इनके पिता को बिस्मिल जी के आर्य समाजी होने की सुचना दे दी थी।
बिस्मिल जी का परिवार सनातन धर्म में पूर्ण आस्था रखता था और इनके पिता कट्टर सनातन धर्मी थे। उन्हें किसी बाहर वाले व्यक्ति से इनके आर्य समाजी होने का पता चला तो उन्होंने खुद को बहुत अपमानित महसूस किया क्योंकि वो बिस्मिल के आर्य समाजी होने से पूरी तरह से अनजान थे।
अतः घर आकर उन्होंने इनसे आर्य समाज छोड़ देने के लिए कहा। समाज की उंच-नीच के बारे में बताया लेकिन बिस्मिल जी ने अपने पिता की बात मानने की जगह पर उन्हें उल्टा समझना शुरू कर दिया। अपने पुत्र को इस प्रकार बहस करते देख वे खुद को और अपमानित महसूस करने लगे।
उन्होंने क्रोध में आकर यहाँ तक कह दिया कि या तो आर्य समाज छोड़ दो या मेरा घर छोड़ दो। इस पर बिस्मिल जी ने अपने सिद्धांतों पर अटल रहते हुए घर छोड़ने का निश्चय किया और अपने पिता के पैर छुकर उसी वक्त घर छोडकर चले गए।
इनका शहर में कोई भी परिचित नहीं था जहाँ ये कुछ समय के लिए रह सकें इसलिए ये जंगल की तरफ चले गए। वहां पर उन्होंने एक दिन और एक रात बिताए थे। इन्होंने नदी में नहाकर पूजा अर्चना की। जब इन्हें भूख लगी तो खेत से हरे चने तोडकर खा लिए। दूसरी ओर इनके इस तरह घर से चले जाने पर घर में सभी लोग परेशान हो गए थे।
मुरलीधर जी को भी गुस्सा शांत होने पर अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्हें खोजने में लग गए। दूसरे दिन शाम के समय जब ये आर्य समाज मंदिर पर स्वामी अखिलानंद जी का प्रवचन सुन रहे थे तब इनके पिता दो व्यक्तियों के साथ वहां पर आए और उन्हें अपने साथ घर ले गए।
कुमार सभा की सदस्यता :
आर्य समाज से प्रभावित युवकों ने आर्य समाज मंदिर में कुमार सभा की स्थापना की थी। हर शुक्रवार को कुमार सभा की एक बैठक होती थी। यह सभा धार्मिक पुस्तकों पर बहस, निबंध लेखन, वाद-विवाद आदि का आयोजन करती थी। बिस्मिल जी भी इसके सदस्य थे। यहीं से उन्होंने सार्वजनिक रूप से बोलना शुरू किया।
कुमार सभा के सदस्य शहर और आसपास लगने वाले मेलों में आर्य समाज के सिद्धांतों का प्रचार करते थे तथा बाजारों में भी इस विषय में व्याख्यान देते थे। इस तरह का प्रचार कार्य मुसलमानों को सहन नहीं हुआ था। संप्रदायिक वैमनस्य बढ़ने का खतरा दिखाई देने लगा। अतः बाजारों में व्याख्यान देने पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
आर्य समाज के बड़े-बड़े नेता लोग कुमार सभा के सदस्यों को अपने संकेतों पर नाचना चाहते थे लेकिन युवक उनका नियंत्रण स्वीकार करने को किसी तरह तैयार नहीं थे। कुमार सभा के लिए आर्य समाज में ताला लगा दिया गया। उन्हें मंदिर में सभा नहीं करने के लिए बाध्य कर दिया गया था।
चेतावनी दी गई कि उन्होंने मंदिर में सभा की तो उन्हें पुलिस द्वारा बाहर निकलवा दिया जाएगा। इससे युवकों को बहुत निराशा हुई उन्हें ऐसी आशा नहीं थी। फिर भी वे दो-तीन महीनों तक मैदान में ही अपनी साप्ताहिक बैठक करते रहे थे। सदा ऐसा करना संभव नहीं था अतः कुमार सभा समाप्त हो गई थी।
बुजुर्ग आर्य समाजियों ने अपनी नेतागिरी दिखाने के लिए युवकों की भावनाओं की हत्या कर दी थी। कुमार सभा के टूट जाने पर भी उसका शहर की जनता पर अच्छा प्रभाव पड़ चुका था। लखनऊ में संपन्न होने वाले कांग्रेस के अधिवेशन के साथ अखिल भारतीय कुमार सभा का भी वार्षिक सम्मेलन होने वाला था।
बिस्मिल जी इनमें भाग लेने के इच्छुक थे। इसमें भाग लेने पर कांग्रेस का अधिवेशन देखने का भी मौका मिल जाता। उन्होंने अपनी यह इच्छा अपने घर वालों के सामने रखी थी लेकिन उनके पिता और दादा इससे सहमत नहीं हुए थे। दोनों ने इसका प्रबल विरोध किया सिर्फ उनकी माता जी ने ही उन्हें भेजने का समर्थन किया।
उन्होंने पुत्र को वहां जाने के लिए खर्चा भी दिया जिसकी वजह से उन्हें पति की डांट-फटकार का भी सामना करना पड़ा था। बिस्मिल जी लखनऊ गए और अखिल भारतीय कुमार सम्मेलन में भाग लिया था। इस सम्मेलन में लाहौर और शाहजहाँपुर की कुमार सभाओं को ही सबसे ज्यादा पुरस्कार प्राप्त हुए थे। देश के सभी प्रमुख समाचार पत्रों ने इस समाचार को प्रकाशित किया था।
अस्त्रों-शस्त्रों से लगाव :
बिस्मिल जी जिन दिनों मिशन स्कूल में विद्यार्थी थे और कुमार सभा की बैठकों में भाग लेते थे उन्हीं दिनों मिशन स्कूल के एक अन्य विद्यार्थी से उनका परिचय हुआ। वह विद्यार्थी भी कुमार सभा की बैठकों में आता था। बिस्मिल जी के भाषणों का उस पर प्रभाव पड़ा। दोनों का परिचय धीरे-धीरे गहरी मित्रता में बदल गया।
वह भी बिस्मिल जी के पडोस में रहता था और पास ही के गाँव का रहने वाला था। वह जिस गाँव का रहने वाला था उस गाँव में हर घर में बिना लाइसेंस के हथियार रहते थे। इसी तरह के बंदूक, तमंचे आदि सभी गाँव में ही बनते थे। वहां पर सभी हथियार टोपीदार होते थे। इस मित्र के पास भी गाँव में ही बना एक नाली का एक छोटा-सा पिस्तौल था जिसे वह अपने पास ही रखता था।
उसने वह पिस्तौल बिस्मिल जी को रखने के लिए दे दिया था। बिस्मिल जी के मन में भी हथियार रखने की तीव्र इच्छा थी। उनके पिता पंडित मुरलीधर की कई लोगों से शत्रुता थी जिसकी वजह से उनके शत्रुओं ने उन पर कई बार लाठियों से प्रहार किया था। बिस्मिल जिस इसका प्रतिशोध लेना चाहते थे।
इस पिस्तौल के मिलने पर उन्हें बहुत अधिक प्रसन्नता हुई। उन्होंने उसे चलाकर देखा लेकिन वह किसी काम का भी न था। अतः उन्होंने उसे यूँ ही घर के किसी कोने में फेंक दिया। इससे मित्र से बिस्मिल जी का प्रेम बहुत अधिक बढ़ गया। दोनों दोस्त साथ-साथ बैठते और खाना खाते। शाम के समय बिस्मिल जी अपने घर से खाना लेकर उसी के पास पहुंच जाते।
एक दिन उस मित्र के पिताजी गाँव से उससे मिलने आए। उन्हें इन दोनों की इतनी गहरी मित्रता पसंद नहीं आई थी। उन्होंने बिस्मिल को वहां न आने की चेतावनी दी और कहा कि अगर वह न माने तो उनको गाँव से गुंडे बुलवाकर बुरी तरह पिटवा दिया जाएगा। फलतः इसके बाद बिस्मिल जी ने उस मित्र के पास जाना छोड़ दिया लेकिन वह उनके घर बराबर आता रहा।
हथियार खरीदने की इच्छा :
उनकी इच्छा हथियार खरीदने की थी और उनकी यह इच्छा बढ़ती ही गई। वे हथियार खरीदने के लिए लगातार कोशिश करते रहे लेकिन कोई सफलता प्राप्त नहीं हुई। इसी बीच उन्हें अपनी बहन की शादी के मौके पर ग्वालियर जाने का अवसर प्राप्त हुआ। उन्होंने सुना था कि ग्वालियर राज्य में हथियार बहुत ही आसानी से मिल जाते हैं। इसके लिए उन्होंने अपनी माँ से धन माँगा था।
माँ ने उन्हें करीब 125 रूपए दिए थे। धन लेने के बाद बिस्मिल जी हथियारों की खोज में चल दिए। वे किसी भी हालत में इस मौके को हाथ से नहीं जाने देना चाहते थे। हथियारों की खोज में बहुत से स्थानों पर घूमें। टोपी वाले पिस्तौल और बंदूकें तो मिली थीं लेकिन कारतूसी हथियार कहीं पर भी दिखाई नहीं देते थे।
वस्तुतः उन्हें हथियारों की पहचान भी नहीं थी। अंत में उनकी मुलाकात एक व्यक्ति से हुई जिसने उन्हें असली रिवोल्वर देने का वादा किया। बिस्मिल जी उस व्यक्ति के साथ गए। उस व्यक्ति ने उन्हें 5 गोलियों वाला रिवोल्वर दिया और उसकी कीमत 75 रूपए लगाई। बिस्मिल जी ने इस रिवोल्वर को खरीद लिया। इससे उन्हें बहुत प्रसन्नता हुई।
इसमें बारूद भरी जाती थी। उस व्यक्ति ने बिस्मिल जी को रिवालवर के साथ थोसी सी बारूद और कुछ टोपियाँ भी दी थीं। रिवाल्वर को लेकर बिस्मिल जी शाहजहाँपुर आए। रिवाल्वर कितने काम का है यह देखने के लिए उन्होंने उसका परीक्षण करना चाहा। उस व्यक्ति ने जो बारूद दी थी वह उत्तम श्रेणी की नहीं थी।
पहली बार उसमें बारूद भरकर उन्होंने फायर किया लेकिन गोली सिर्फ 15 से 20 गज की दूरी पर ही गिरी। इससे उन्हें बहुत निराशा हुई। अब यह स्पष्ट हो गया था कि वे ठग लिए गए थे। ग्वालियर से लौटने पर माता जी ने पूछा कि क्या लाए हो तो बिस्मिल जी को अपनी असफलता से सब बताने का साहस नहीं हुआ अतः उन्होंने बात टाल दी और शेष पैसे माँ को लौटा दिए।
विदेशी राज्य के विरुद्ध प्रतिज्ञा :
लाहौर षडयंत्र के मामले में सन् 1915 में प्रसिद्ध क्रांतिकारी भाई परमानंद को फांसी की सजा सुना दी गई थी। बिस्मिल जी भाई परमानंद जी के विचारों से प्रभावित थे और उनके दिल में इस महान देशभक्त के लिए अपार श्रद्धा थी। इस निर्णय का समाचार पढकर बिस्मिल जी का देशानुराग जाग पड़ा।
उन्होंने उसी वक्त अंग्रेजों के अत्याचारों को मिटने और मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए सतत प्रयत्न करने की प्रतिज्ञा ली। यद्यपि भाई परमानंद की फांसी की सजा के बाद में महामना मदनमोहन मालवीय तथा देशबंधु एंडयुज के प्रयत्नों से आजन्म कारावास में बदल दिया गया लेकिन बिस्मिल जीवन भर अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रहे।
इस प्रतिज्ञा के बाद उनका एक नया जुवन शुरू हुआ। पहले वह एक सामान्य मध्यवर्गीय परिवार के पुत्र थे इसके बाद वह आर्यसमाज से प्रभावित हुए और एक सच्चे सात्त्विक आर्यसमाजी बने तथा इस प्रतिज्ञा के बाद उनका जीवन मातृभूमि के लिए समर्पित हो गया। यह उनके दिल में देश प्रेम के बीज का पहला अंकुरण था।
स्वामी सोमदेव से भेंट :
बिस्मिल जी के घर से चले जाने की वजह से उनके पिता जी ने उनका अधिक विरोध करना बंद कर दिया। ये जो भी काम करते थे वो चुपचाप सहन कर लेते थे। इस तरह से इन्होंने अपने सिद्धांतों पर चलते हुए अपना सारा ध्यान समाज की सेवा के कामों और अपनी पढ़ाई में लगा दिया। जिससे इन्होंने अपनी क्लास में पहला स्थान प्राप्त किया।
इनका यह क्रम आठवीं क्लास तक जारी रहा। बिस्मिल जी को अपने दादा-दादी जी से साहस व विद्रोह और माता-पिता से दृढता एवं बुद्धिमत्ता विरासत में मिली थी। इसके साथ ही मंदिर के पुजारी के संपर्क में रहने से उन्होंने मन का संकल्प और शांति की प्रेरणा को ग्रहण कर लिया था।
अब सिर्फ एक महान व्यक्तित्व को प्रतिबिंबित करने वाली एक ही भावना बाकी रह गई थी वह अपने देश के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर करने की भावना थी। इसके लिए एक उच्चकोटि के गुरु की आवश्यकता थी। इनकी यह आवश्यकता भी जल्द ही पूरी हो गई क्योंकि इनकी मुलाकात स्वामी सोमदेव से हो गई थी।
स्वामी सोमदेव आर्य समाज के प्रचार के लिए बिस्मिल जी के गाँव के पास वाले गाँव में आए थे लेकिन वहां की जलवायु स्वामी जी के स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद नहीं थी। अतः उन्होंने इनके गाँव शाहजहाँपुर के आर्य समाज के मंदिर में रहना शुरू कर दिया था। बिस्मिल जी इनके व्यक्तित्व से बहुत ज्यादा प्रभावित हुए और पूरे मन से इनकी सेवा करने लगे थे।
ये स्वामी जी के प्रवचनों को बहुत ध्यान से सुनते और अपने गुरु के बताए हुए रास्ते पर चलने की हर संभव कोशिश करते थे। उनके बताए गए सिद्धांतों को समाज के हित में प्रयोग करते। स्वामी जी के सानिध्य में रहने के बाद ये पूरी तरह से सत्यवादी बन गए। किसी भी परिस्थिति में इनके मुंह से सिर्फ सच ही निकलता था।
परमानंद को फांसी की सजा का बिस्मिल के व्यक्तित्व पर प्रभाव :
आचार्य सोमदेव जी हर क्षेत्र में उच्चकोटि का ज्ञान रखते थे। उनके अर्जित ज्ञान की वजह से ही वे लोगों को शीघ्र ही अपने व्यक्तित्व से आकर्षित कर लेते थे। उनके परामर्श के लिए लाला हरदयाल उनसे संपर्क करते रहते थे। राजनीति में स्वामी जी के ज्ञान की कोई सीमा नहीं थी।
वो अक्सर बिस्मिल जी को धार्मिक व राजनीतिक उपदेश देते थे लेकिन बिस्मिल जी से राजनीति में ज्यादा खुलकर बात नहीं करते थे। वे बस इन्हें देश की राजनीति के संबंध में जानकारी रखने के लिए कहते और इन्हें तत्कालीन परिस्थितियों के संदर्भ में व्याख्यान देने के साथ-साथ अलग-अलग राजनीतिज्ञों की पुस्तकों का अध्धयन करने की सलाह देते थे।
इस प्रकार बिस्मिल जी में धीरे-धीरे देश के लिए कुछ कर गुजरने की इच्छा जाग्रत होने लगी। उन्ही के प्रोत्साहन पर इन्होंने लखनऊ के कांग्रेस अधिवेशन में भाग लिया था। सन् 1916 में लाहौर षडयंत्र के अभियुक्तों पर मुकदमा चलाया जा रहा था।
बिस्मिल जी इस मुकदमें से संबंधित हर खबर को बहुत गहराई से पढ़ते थे क्योंकि ये इस मुकदमे के मुख्य अभियुक्त भाई परमानंद द्वारा लिखी गई किताब तावारीख हिन्द को पढ़कर इनके विचारों से बहुत ज्यादा प्रभावित हो गए थे। मुकदमों के अंत में जब परमानंद को फांसी की सजा सुनाई गई तो उस वक्त बिस्मिल जी बहुत आहत हुए थे।
इन्होंने महसूस किया कि अंग्रेज बहुत अत्याचारी है। इनके शासनकाल में भारतियों के लिए कोई न्याय नहीं है। अतः उन्होंने बदला लेने की प्रतिज्ञा ली। इस प्रकार प्रतिज्ञा करने के बाद वे स्वामी सोमदेव के पास गए। उन्हें परमानंद को फांसी की सजा के फैसले का समाचार सुनाने के बाद अपनी प्रतिज्ञा के विषय में बताया।
इस पर स्वामी जी ने कहा कि प्रतिज्ञा करना आसान है लेकिन उसे निभा पाना बहुत मुश्किल है। इस पर रामप्रसाद बिस्मिल जी ने कहा कि अगर गुरुदेव का आशीर्वाद उनके साथ रहा तो वो पूरी शिद्दत के साथ अपनी प्रतिज्ञा को पूरा करेंगे। इसके बाद से स्वामी जी खुलकर इनसे राजनीतिक मुद्दों पर बात करने लगे और साथ ही इन्हें राजनीति की शिक्षा भी देने लगे थे। इस घटना के बाद से इनका क्रांतिकारी जीवन शुरू हुआ।
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जी का आगमन :
सन् 1916 में लखनऊ में कांग्रेस का अधिवेशन था जिसमें सम्मिलित होने के लिए बाल गंगाधर तिलक आ रहे थे। जब यह खबर क्रांतिकारी विचारधारा के समर्थकों को मिली तो वे सब उत्साह से भर गए लेकिन जब उन्हें यह पता चला कि तिलक जी का स्वागत सिर्फ स्टेशन पर ही किया जाएगा तो उन सब के उत्साह पर पानी फिर गया।
बिस्मिल जी को जब यह खबर मिली तो वे भी अन्य प्रशंसकों की तरह लखनऊ स्टेशन पहुंच गए। इन्होंने अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर विचार-विमर्श किया कि जैसे एक राष्ट्र के नेता का स्वगत होना चाहिए उसी तरह से तिलक जी का भी स्वागत बहुत ही भव्य तरीके से किया जाना चाहिए। दूसरे दिन लोकमान्य तिलक जी स्टेशन पर स्पेशल ट्रेन से पहुंचे।
उनके आने की खबर मिलते ही स्टेशन पर उनके प्रशंसकों की बहुत बड़ी भीड़ इकठ्ठा हो गई। ऐसा लग रहा था जैसे पूरा लखनऊ उन्हें एक बार देखने के लिए उमड़ पड़ा हो। लोकमान्य तिलक जी के स्टेशन पर उतरते ही कांग्रेस की स्वागत-कारिणी के सदस्यों ने उन्हें घेरकर गाड़ी में बैठा लिया और पूरा स्टेशन नारों से गूंज उठा।
तिलक जी भारी जन समूह से घिरे मुस्कुरा रहे थे। इनके मित्रों ने एक और गाड़ी की व्यवस्था की। उस गाड़ी के घोड़ों को खोल दिया गया और तिलक जी को उसमें बैठाकर खुद अपने हाथों से गाड़ी खींचकर जुलूस को निकाला। पूरे रास्ते इन पर फूलों की वर्षा की गई।
कांग्रेस की गुप्त समिति से संबंध :
रामप्रसाद बिस्मिल जी लखनऊ में कांग्रेस अधिवेशन में शामिल होने गए थे। लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने जाने पर बिस्मिल जी कुछ क्रांतिकारी विचारों वाले युवकों के संपर्क में आए। इन युवकों का मत था कि देश की तत्कालीन दुर्दशा की एकमात्र वजह अंग्रेज ही थे। बिस्मिल जी भी इन विचारों से प्रभावित हुए।
अतः देश की स्वतंत्रता के लिए उनके मन में कुछ विशेष काम करने का विचार आया। यहीं पर उन्हें पता चला कि क्रांतिकारियों की एक गुप्त समिति भी है। यहाँ इनकी मुलाकात कांग्रेस के उन सदस्यों से हुई जो कांग्रेस के भीतर क्रांतिकारी गतिविधियों को कर्यान्वित करने के लिए गुप्त समिति का निर्माण कर रहे थे।
इस समिति का मुख्य उद्देश्य क्रांतिकारी मार्ग से देश की स्वतंत्रता प्राप्त करना था। इन सब का पता चलने पर बिस्मिल जी के मन में भी इस समिति का सदस्य बनने की तीव्र इच्छा हुई। वह भी समिति के कार्यों में सहयोग देने लगे। वे अपने एक मित्र के माध्यम से इसके सदस्य बन गए और थोड़े ही वक्त में वह समिति की कार्यकारिणी के सदस्य बना लिए गए।
इस समिति के सदस्य बनने के बाद बिस्मिल जी फिर अपने घर शाहजहाँपुर आ गए। समिति के पास आय का कोई स्त्रोत न होने की वजह से धन की बहुत कमी थी। बिस्मिल जी के अंदर जो क्रांतिकारी विचार उमड़ रहे थे अब उन्हें कर्यान्वित करने का वक्त आ गया था। ये बाहर से ही इस समिति के सदस्यों के कामों में सहायता करने लगे।
इनकी लगन को देखकर गुप्त समिति के सदस्यों ने इनसे संपर्क किया और इन्हें कार्यकारिणी समिति का सदस्य बना लिया। गुप्त समिति के पास बहुत कम कोष था और क्रांतिकारी गतिविधियों को जारी रखने के लिए अस्त्र-शस्त्रों की जरूरत थी। समिति की धन की आवश्यकता को पूरी करने के लिए बिस्मिल जी ने पुस्तक प्रकाशित करके उसके धन को समिति के कोष में जमा करके लक्ष्यों की प्राप्ति करने का विचार सामने रखा।
इससे दोहरे उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सकती थी। एक ओर किताब को बेचकर धन प्राप्त किया जा सकता था तो दूसरी ओर लोगों में क्रांतिकारी विचारों को जगाया जा सकता था। बिस्मिल जी ने दो बार अपनी माँ से 200-200 रूपए लिए और अमेरिका को आजादी कैसे मिली नाम की पुस्तक का प्रकाशन किया।
पुस्तक की बिक्री हो जाने के बाद इन्होंने अपनी माँ से लिए रूपए वापस के दी और सारे हिसाब करने के बाद में 200 रूपए बच गए जिससे इन्होंने हथियार खरीदे। पूरी किताबें अभी बिक नहीं पाई थीं कि इन्होंने सन् 1918 में देशवासियों के नाम संदेश नाम से पर्चे छपवाए। संयुक्त प्रांत की सरकार ने इनकी किताब और पर्चे दोनों पर बैन लगा दिया।
सरकार द्वारा प्रतिबंधित किताबों की बिक्री :
28 जनवरी, 1918 को रामप्रसाद बिस्मिल ने लोगों में क्रांतिकारी विचारों को जागृत करने के लिए देशवासियों के नाम संदेश के शीर्षक से पर्चे छपवाकर अपनी कविता मैनपुरी की प्रतिज्ञा के साथ बांटा। इनकी किताब पर सरकार ने बेचने के लिए रोक लगा दी जिस पर इन्होंने अपने साथियों की सहायता से कांग्रेस अधिवेशन के दौरान बची हुई प्रतियों को बेचने की योजना बनाई। सन् 1918 में कांग्रेस के दिल्ली अधिवेशन के दौरान शाहजहाँपुर सेवा समिति की तरफ से स्वंयसेवकों का एक दल एंबुलेंस से गया।
इस दल के साथ बिस्मिल और इनके कुछ साथी गए। स्वंयसेवकों का दल होने की वजह से पुलिस ने इनकी कोई तलाशी नहीं ली और वहां पहुंचकर इन्होंने खुले रूप से पुस्तकों को बेचना शुरू कर दिया था। पुलिस ने शक होने पर आर्य समाज द्वारा बेचीं जा रही किताबों की जाँच करना शुरू कर दिया। इतने में बिस्मिल जी ने बची हुई प्रतियों को इकट्ठा करके दल के साथ वहां से फरार हो गए थे।
मैनपुरी षडयंत्र :
स्वामी सोमदेव रामप्रसाद बिस्मिल जी के विचारों और कार्यों को जान चुके थे कि ये अपने देश के लिए कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार है। राम प्रसाद बिस्मिला जी ने अंग्रेजी साम्राज्यवाद से लड़ने और देश को आजाद कराने के लिए मातृदेवी नाम की एक क्रांतिकारी संगठन की स्थापना की।
इस काम के लिए उन्होंने ओरैया के पंडित गेंदा लाल दीक्षित की सहायता ली। गेंदा लाल दीक्षित जी उत्तर प्रदेश में ओरैया जिले के डीएवी पाठशाला में अध्यापक थे। स्वामी सोमदेव जी चाहते थे कि इस काम में बिस्मिला जी की सहायता कोई अनुभवी व्यक्ति ही करे इस वजह से उन्होंने उनकी मुलाकात पंडित गेंदा लाल से कराई थी।
बिस्मिल जी की तरह पंडित जी ने भी शिवाजी समिति नामक एक क्रांतिकारी संगठन की स्थापना की थी। दोनों ने मिलकर इटावा, मैनपुरी, आगरा और शाहजहाँपुर जिलों के युवकों को देश सेवा के लिए संगठित किया था। जनवरी 1918 में बिस्मिल जी ने देशवासियों के नाम संदेश नामक एक पैम्फलेट प्रकाशित किया और अपनी कविता मैनपुरी की प्रतिज्ञा के साथ-साथ इसका भी वितरण करने लगे।
सन् 1918 में उन्होंने अपने संगठन को मजबूत करने के लिए 3 डकैती भी डाली। सन् 1918 में कांग्रेस के दिल्ली अधिवेशन के दौरान पुलिस ने उनको और उनके संगठन के दूसरे सदस्यों को प्रतिबंधित साहित्य बेचने के लिए छापा डाला लेकिन बिस्मिल जी भागने में सफल हो गए थे।
पुलिस से मुठभेड़ के बाद उन्होंने यमुना में छलांग लगा दी और तैरकर आधुनिक ग्रेटर नॉएडा के बीहड़ों में चले गए। इन बीहड़ों में उन दिनों सिर्फ बबूल के पेड़ ही हुआ करते थे और इंसान कहीं दूर-दूर तक दिखाई नहीं देते थे। एक तरफ मैनपुरी षडयंत्र मुकदमे में ब्रिटिश सरकार के जज ने फैसला सुनाते हुए बिस्मिल और दीक्षित को भगोड़ा घोषित कर दिया।
बिस्मिल जी ने ग्रेटर नॉएडा के एक छोटे से गाँव रामपुर में स्थान लिया और कई महीनों तक वहाँ के निर्जन जंगलों में घूमते रहे। इसी दौरान उन्होंने अपना क्रांतिकारी उपन्यास बोल्शेविकों की करतूत लिखा और यौगिक साधन का हिंदी अनुवाद भी किया।
इसके बाद बिस्मिल कुछ वक्त तक इधर-उधर भटकते रहे और जब फरवरी 1920 में सरकार ने मैनपुरी षडयंत्र के सभी बंदियों को रिहा कर दिया तब वो भी शाहजहाँपुर वापस लौट गए। सितंबर 1920 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में वो शाहजहाँपुर कांग्रेस कमेटी के अधिकृत प्रतिनिधि के रूप में शामिल हुए थे।
वहां पर उनकी मुलाकात लाला लाजपतराय से हुई थी जो उनकी लिखी हुई पुस्तकों से बहुत अधिक प्रभावित हुए और उनका परिचय कलकत्ता के कुछ प्रकाशकों से करा दिया। इन्हीं प्रशासकों में से एक उमादत्त शर्मा ने आगे चलकर सन् 1922 में बिस्मिल की एक किताब कैथेराइन छापी थी।
सन् 1921 में उन्होंने कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन में भाग लिया और मौलाना हसरत मोहनी के साथ मिलकर पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव कांग्रेस के साधारण सभा में पारित करवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। शाहजहाँपुर लौटकर उन्होंने लोगों को असहयोग आंदोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित किया।
चौरी-चौरा कांड के बाद गाँधी जी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया तो सन् 1922 के हुए अधिवेशन में बिस्मिल और उनके साथियों के विरोध स्वरूप कांग्रेस में फिर दो विचारधाराएँ बन गई जिनमें से एक उदारवादी और दूसरी विद्रोही।
पलायनावस्था में साहित्य सृजन :
बिस्मिल जी ने एक छोटे से गाँव रामपुर जहांगीर में शरण ली और कई महीनों तक यहाँ के निर्जन जंगलों में घूमते हुए और इस गाँव के गूजरों की गाय-भैंस चराने लगे। यहीं पर रहकर उन्होंने अपना क्रांतिकारी उपन्यास बोल्शेविको की करतूत लिखा था। यमुना किनारे की जमीन उन दिनों पुलिस से बचने के लिए सुरक्षित समझी जाती थी। अतः बिस्मिल ने उस निरापद स्थान का पूरा इस्तेमाल किया बिस्मिल जी की एक विशेषता यह भी थी कि वे एक स्थान पर ज्यादा दिनों तक ठहरते नहीं थे।
कुछ दिन रामपुर जहाँगीर में रहकर अपनी सगी बहन शास्त्री देवी के गाँव कोसला में भी रहे। उनकी खुद की बहन भी उन्हें पहचान नहीं पाई थी। कोसमा से चलकर वे बाह पहुंचे। कुछ दिन बाह में रहकर वहां से पिन्नहट, आगरा होते हुए ग्वालियर रियासत स्थित अपने दादा जी के गाँव बरबई चले गए। इस तरह से वे बहुत से स्थानों पर घुमे थे।
बिस्मिल जी की भूमिगत गतिविधियाँ :
मैनपुरी षडयंत्र के मुख्य आरोपी के रूप में फरार होते वक्त इन्होंने यमुना में छलांग लगाई थी जिससे इनका कुर्ता नदी में बह गया था और ये तैरकर सुरक्षित नदी के दूसरे किनारे पर चले गए। इनके कुर्ते को नदी में देखकर पुलिस कर्मचारियों को लगा कि शायद गोली लगने की वजह से इनकी मौत हो गई है जिससे पूरी दुनिया में इन्हें मृत मान लिया गया।
वहीं पर जब बिस्मिल जी को यह पता चला कि उन्हें मृत घोषित कर दिया गया है तो उन्होंने मैनपुरी षडयंत्र पर फैसला होने तक अपने आप को प्रत्यक्ष न करने का फैसला किया। ये सन् 1919 से 1920 के मध्य में भूमिगत होकर काम करने लगे। इसी बीच इन्होंने अपने किसी भी करीबी से कोई भी संपर्क नहीं किया।
सन् 1919 से 1920 में भूमिगत रहते हुए बिस्मिल जी उत्तर प्रदेश के कई गाँवों में रहे। कुछ वक्त के लिए रामपुर जहाँगीर गाँव में रहे जो वर्तमान समय में ग्रेटर नॉएडा के गौतम बुद्ध जिले में आता है, कुछ दिनों के लिए मैनपुरी जिले के कोसमा गाँव में और आगरा जिले के बाह तथा पिन्नहट गांवों में रहे थे। ये अपनी माँ से कुछ पैसा उधार लेने के लिए अपने पैतृक गाँव भी गए।
आम नागरिक का जीवन :
सन् 1920 में सरकार ने अपनी उदारता की नीति की वजह से मैनपुरी षडयंत्र मुकदमे के आरोपियों को मुक्त करने की घोषणा कर दी। इस घोषणा के बाद बिस्मिल जी अपने गाँव शाहजहाँपुर वापस लौट आए और अपने जिले के अधिकारीयों से आकर मिले।
उन अधिकारीयों ने इनसे एक शपथ पत्र लिया जिस पर यह लिखवाया गया कि वे आगे से किसी भी क्रांतिकारी गतिविधि में भाग नहीं लेंगे। इनके इस तरह का शपथ पत्र देने पर इन्हें अपने गाँव में शांतिपूर्वक रहने की अनुमति मिल गई।
शाहजहाँपुर आने के बाद बिस्मिल जी ने आम नागरिक का जीवन जीना आरंभ कर दिया। ये कुछ दिनों तक भारत सिल्क निर्माण कंपनी के प्रबंधक के रूप में कार्यरत रहे लेकिन बाद में इन्होंने बनारसी दास के साथ मिलकर साझेदारी में अपना खुद का सिल्क बनाने का उद्योग स्थापित कर लिया था।
बिस्मिल जी ने कम वक्त में ही खुद को इस व्यवसाय में स्थापित करके बहुत धन अर्जित कर लिया था। इतना सब कुछ करने के बाद भी इन्हें आत्मिक शांति नहीं मिल रही थी क्योंकि अभी तक ये ब्रिटिश सरकार को भारत से बाहर करने की अपनी प्रतिज्ञा को पूरा नहीं कर पाए थे।
बिस्मिल जी का असहयोग आन्दोलन में योगदान :
जिस वक्त बिस्मिल जी आम नागरिक के रूप में जीवन जी रहे थे उस वक्त देश में अंग्रेजों के विरुद्ध असहयोग आंदोलन चल रहा था। गाँधी जी से प्रेरित होकर बिस्मिल जी शाहजहाँपुर के स्वंय सेवक दल के साथ अहमदाबाद के कांग्रेस अधिवेशन में गए। इनके साथ कांग्रेस के वरिष्ठ सदस्य प्रेमकृष्ण खन्ना और अशफाक उल्ला खां भी थे।
इन्होंने एक अन्य कांग्रेस सदस्य मौलाना हसरत मौहानी के साथ पूर्ण स्वराज्य की भूमिका वाले प्रस्ताव को पास कराने में सक्रिय भूमिका भी निभाई। कांग्रेस के अधिवेशन से लौटने के बाद इन्होंने संयुक्त प्रांत के युवान को असहयोग में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। ये सभाओं को आयोजित करके उनमें भाषण देते।
इनके उग्र भाषणों और कविताओं से लोग बहुत प्रभावित हुए और ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध असहयोग आंदोलन में भाग लेने लगे। इन कामों की वजह से ये ब्रिटिश सरकार के शत्रु बन गए। इनकी अधिकांश पुस्तकों और लेखों को सरकार ने प्रकाशित करने और बेचने पर प्रतिबंध लगा दिया।
क्रांतिकारी पार्टी की स्थापना :
सन् 1922 में गाँधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन को वापस लेने की वजह से बिस्मिल जी ने अपने नेतृत्व में संयुक्त प्रांत के युवाओं को संगठित करके क्रांतिकारी दल का निर्माण किया। गदर पार्टी के संस्थापक लाला हरदयाल की सहमती से सन् 1923 में पार्टी के संविधान को बनाने के लिए ये इलाहाबाद गए।
पार्टी के मुख्य लक्ष्यों और उद्देश्यों को पीले रंग के कागज पर लिखा गया। इसकी वजह से इस पार्टी को पीला कागज संविधान भी कहा जाता था। पार्टी की स्थापना और उद्देश्यों के निर्माण में बिस्मिल के साथ-साथ शचीन्द्र नाथ सान्याल और जय गोपाल मुखर्जी शामिल थे। क्रांतिकारी पार्टी के सदस्यों की पहली सभा का आयोजन 3 अक्टूबर, 1923 को कानपुर में किया गया था।
इस सभा में बंगाल प्रांत के प्रसिद्ध क्रांतिकारी शचींद्रनाथ सान्याल को पार्टी का चैयरमैन चुना गया था। बिस्मिल जी को शाहजहाँपुर जिले के नेतृत्व के साथ-साथ शस्त्र विभाग का प्रमुख नियुक्त किया गया था। सभा में समिति ने सबकी सहमति से पार्टी के नाम को बदलकर हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन रख दिया गया था।
एच०आर०ए० का गठन :
सितंबर 1923 में हुए दिल्ली के विशेष कांग्रेस अधिवेशन में असंतुष्ट नवयुवकों ने एक क्रांतिकारी पार्टी बनाने का फैसला किया। प्रसिद्ध क्रांतिकारी लाला हरदयाल जो उन दिनों विदेश में रहकर देश को आजादी दिलाने की कोशिश कर रहे थे, ने एक पत्र लिखकर बिस्मिल जी को शचींद्रनाथ सान्याल और यदु गोपाल मुखर्जी से मिलकर नई पार्टी का संविधान तैयार करने पर विचार-विमर्श किया था।
3 अक्टूबर, 1924 को हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की एक बैठक कानपूर में की गई थी जिसमें शचींद्रनाथ सान्याल, योगेश चंद्र चटर्जी और राम प्रसाद बिस्मिल जैसे बहुत से प्रमुख सदस्यों ने भाग लिया था। पार्टी के लिए फंड एकत्रित करने के लिए 25 दिसंबर, 1924 को बमरौली में डकैती डाली गई थी।
घोषणा पत्र का प्रकाशन :
क्रांतिकारी पार्टी की तरफ से 1 जनवरी, 1925 को किसी गुमनाम जगह से प्रकाशित और 28 से 31 जनवरी, 1925 के मध्य पूरे हिंदुस्तान के सभी प्रमुख स्थानों पर वितरित 4 पर्चे के पैम्फलैट दि रिवोल्यूशनरी में बिस्मिल जी ने विजय कुमार के छद्म नाम से अपने दल की विचारधारा का लिखित रूप से खुलासा करते हुए साफ-साफ शब्दों में घोषित कर दिया था कि क्रांतिकारी इस देश की शासन व्यवस्था में किस तरह का बदलाव चाहते हैं और इसके लिए वे क्या-क्या कर सकते हैं?
सिर्फ इतना ही नहीं उन्होंने गाँधी जी की नीतियों का मजाक बनाते हुए यह प्रश्न भी किया था कि जो व्यक्ति खुद को आध्यात्मिक कहता है वह अंग्रेजों से खुलकर बात करने में क्यों डरता है? उन्होंने हिंदुस्तान के सभी जवानों को ऐसे छद्मवेषी महात्मा के बहकावे में न आने की सलाह देते हुए उनकी क्रांतिकारी पार्टी में शामिल होकर अंग्रेजों से टक्कर लेने का खुला आह्वान किया था।
दि रिवोल्यूशनरी के नाम से अंग्रेजी में प्रकाशित इस क्रांतिकारी घोषणापत्र में क्रांतिकारियों के वैचारिक चिंतन को भली भांति समझा जा सकता है। इस पत्र का अविकल हिंदी काव्यानुवाद अब हिंदी विकिस्त्रोत पर भी उपलब्ध है।
काकोरी कांड :
हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्यों ने अपने संगठन के उद्देश्यों को लोगों तक पहुँचाने के लिए सन् 1925 में द रिव्युनरी के नाम से 4 पेजों का घोषणा पत्र छापकर संपूर्ण भारत में इसे बांटा था। इस पत्र में अंग्रेजों से क्रांतिकारी गतिविधियों के द्वारा भारत को आजाद कराने की घोषणा के साथ-साथ गाँधी जी की नीतियों की आलोचना की और युवाओं को इस संगठन में भाग लेने के लिए निमंत्रण भी दिया था।
इस घोषणा पत्र के जारी होते ही ब्रिटिश सरकार की पुलिस बंगाल के क्रांतिकारियों की गिरफ्तारी करने लगी। पुलिस ने शचींद्रनाथ सान्याल को इस घोषणा पत्र की बहुत सारी प्रतियों के साथ गिरफ्तार कर लिया। शीर्ष नेता की गिरफ्तारी के बाद संगठन की पूरी जिम्मेदारी बिस्मिल जी पर आ गई थी। संगठन कार्यों के कर्ता-धर्ता अब ये ही बन गए थे।
एच०आर०ए० के समक्ष एक साथ दोहरे संकट आ खड़े हुए थे। एक तरफ अनुभवशाली नेताओं का गिरफ्तार होना और दूसरी तरफ संगठन के समक्ष आर्थिक समस्या। जिन क्रांतिकारी उद्देश्यों के लिए इस संगठन को स्थापित किया गया उन्हें संचालित करने के लिए धन की आवश्यकता थी।
इसके लिए संगठन की एक बैठक बुलाई गई और उसमें डकैती करके धन इकट्ठा करने का फैसला लिया गया लेकिन गांवों में डाका डालने से संगठन के लिए पर्याप्त हथियार खरीदने के लिए धन जमा नहीं हो पाता जिससे अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांतिकारी गतिविधियों को कार्यरूप में परिणित किया जा सके।
इस बैठक में रामप्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्र लाहिड़ी, अशफाक उल्ला खां, रोशन सिंह, रामकृष्ण खत्री, शचींद्रनाथ बख्शी, चन्द्रशेखर आजाद आदि ने भाग लिया था। पार्टी के कार्य हेतु धन की जरूरत को पूरा करने के लिए बिस्मिल जी ने सरकारी खजाना लूटने की योजना बनाई गई और उसके नेतृत्व में सिर्फ 10 लोगों ने लखनऊ के पास काकोरी स्टेशन पर ट्रेन को रोककर 9 अगस्त, 1925 को सरकारी खजाना लूटा था।
इस योजना में चन्द्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिला, अशफाक उल्ला खान, राजेन्द्र लाहिड़ी और रोशन सिंह शामिल थे। इस घटना को ही इतिहास में काकोरी कांड के नाम से जाना जाता है। इस घटना ने पूरे देश के लोगों का ध्यान अपनी ओर एकत्रित कर लिया था।
खजाना लूटने के बाद चन्द्रशेखर आजाद पुलिस के चंगुल से भाग निकले थे लेकिन 26 सितंबर, 1925 को बिस्मिल के साथ पूरे देश में 40 से भी ज्यादा लोगों को काकोरी डकैती मामले में गिरफ्तार कर लिया गया था। राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजेन्द्र लाहिड़ी और रोशन सिंह को फांसी की सजा सुनाई गई थी लेकिन बाकी के क्रांतिकारियों को 4 साल की कैद और कुछ क्रांतिकारियों को काला पानी की सजा दी गई थी।
फांसी की सजा और अपील :
रामप्रसाद बिस्मिल जी को अशफाक उल्ला खां, राजेन्द्र लाहिड़ी और रोशन सिंह सहित मौत की सजा सुनाई गई थी। साथ ही ये भी कहा गया कि फांसी की सजा की स्वीकृति अवध के चीफ कोर्ट से ली जाएगी और अपील एक सप्ताह के अंदर ही हो सकेगी।
6 अप्रैल, 1927 को सेशन जज ने अपना आखिरी फैसला सुनाया जिसके बाद 18 जुलाई, 1927 को अवध चीफ कोर्ट में अपील हुई जिसके परिणामस्वरूप कुछ सजाएं कम हुई और कुछ बढ़ा दी गई। राम प्रसाद बिस्मिल जी ने अपील करने से पहले पूरे प्रांत क गवर्नर को सजा माफी के संदर्भ में एक मेमोरियल भेजा था।
इस मेमोरियल में इन्होंने यह प्रतिज्ञा की थी कि अब वे भविष्य में कभी भी किसी क्रांतिकारी दल से कोई भी संबंध नहीं रखेंगे। इस मेमोरियल का जिक्र उन्होंने अपनी अंतिम दया की अपील में किया और उसकी एक प्रति भी चीफ कोर्ट को भेजी लेकिन चीफ कोर्ट के जजों ने इनकी कोई भी प्रार्थना स्वीकार नहीं की।
चीफ कोर्ट में अपील की बहस के दौरान इन्होंने खुद की लिखी बहस भेजी जिसका बाद में प्रकाशन भी किया गया। इनकी लिखी बहस पर चीफ कोर्ट के जजों को विश्वास नहीं हुआ कि ये बहस इन्होंने खुद लिखी है। साथ ही इन जजों को यह भी भरोसा हो गया कि अगर बिस्मिल को खुद ही इस केस की पैरवी करने की अनुमति दे दी गई।
तब यह कोर्ट के समक्ष अपने पेश किए गए तथ्यों के द्वारा सजा माफ कराने में सफल हो जायेंगे। अतः इनकी प्रत्येक अपील को खारिज कर दिया गया। कोर्ट ने इन्हें निर्दयी हत्यारे और भयंकर षडयंत्रकारी आदि नाम दिए।
गोरखपुर जेल में फांसी :
कोर्ट की 18 महीने तक चली लंबी प्रक्रिया के बाद रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां, राजेन्द्र लाहिड़ी और रोशन सिंह की फांसी की सजा को बरकरार रखा गया। राम प्रसाद बिस्मिल जी को 19 दिसंबर, 1927 को ब्रिटिश सरकार द्वारा सुबह आठ बजे गोरखपुर जेल में फांसी दे दी गई थी।
बिस्मिल जी के साथ अशफाक को फैजाबाद जेल में और रोशन सिंह को इलाहबाद के नैनी जेल में फांसी दी गई थी जबकि राजेन्द्र लाहिड़ी को फांसी की तय तारीख से दो दिन पहले 17 दिसंबर को गोंडा जेल में फांसी दे दी गई थी। जिस वक्त उन्हें फांसी लगी थी उस वक्त जेल के बाहर हजारों लोग उनके अंतिम दर्शनों की प्रतीक्षा कर रहे थे।
अस्थि कलश की स्थापना :
बिस्मिल जी की फांसी की सूचना के साथ लाखों की संख्या में लोग उनकी जेल के बाहर एकत्रित हो गए। इतनी बड़ी संख्या में भीड़ को देखकर ब्रिटिश जेल के अधिकारी डर गए। उन्होंने जेल का मुख्य द्वार बंद कर दिया। इस पर भीड़ ने जेल की दीवार को तोड़ दिया और बिस्मिल जी के पार्थिव शरीर को सम्मान के साथ उनके माता-पिता के समक्ष लाए।
शहर के लोगों को बिस्मिल जी के अंतिम दर्शन के लिए उनके शरीर को गोरखपुर के घंटाघर पर रखा गया था। हजारों लोग उनकी शवयात्रा में शामिल हुए और उनका अंतिम संस्कार वैदिक मंत्रों के साथ राप्ती के तट पर किया गया था। इनके शोक सम्मेलन के जुलूस में हिंदी साहित्य के महान लेखक होने के साथ-साथ ही कल्याण हनुमान प्रसाद पोद्दार के संस्थापक महावीर प्रसाद द्विवेदी और राजनीतिज्ञ गोविंद वल्लभ पंत भी शामिल हुए थे।
ये दोनों अंतिम संस्कार की अंतिम विधि होने तक वहां पर उपस्थित रहे थे। क्रांति की देवी के पुजारी स्वंय तो देश के लिए शहीद हो गए लेकिन अपनी शहादत के साथ युवा क्रांतिकारियों के एक नई फौज के निर्माण को प्रशस्त कर गए। बिस्मिल जी की अंत्येष्टि के बाद बाबा राघव दास ने गोरखपुर के पास स्थित देवरिया जिले के बरहज नामक स्थान पर ताम्रपत्र में उनकी अस्थियों को संचित करके एक चबूतरा जैसा स्मृति स्थल बनवा दिया।
बिस्मिल जी की कविताएँ और गजलें :
राम प्रसाद बिस्मिल जी ने बहुत सी कविताएँ और गजलें लिखीं थीं जिसमें से प्रमुख हैं सरफरोशी की तमन्ना, जज्वये शहीद, जिंदगी का राज और बिस्मिल की तडप आदि हैं।
बिस्मिल जी की रचित पुस्तकें :
रामप्रसाद बिस्मिल जी की बहुत सी पुस्तकों का विवरण मिलता है जैसे – मैनपुरी षडयंत्र, स्वदेशी रंग, चीनी षडयंत्र, तपोनिष्ठ अरविंद घोष की कारावास की कहानी, अशफाक की याद में, सोनाखान के अम्र शहीद वीरनारायण सिंह, जनरल जार्ज वाशिंगटन, अमेरिका कैसे स्वाधीन हुआ आदि।
बिस्मिल जी की आत्मकथा :
प्रताप प्रेस कानपूर से काकोरी के शहीद नाम की एक किताब के भीतर जो आत्मकथा प्रकाशित हुई थी उसे ब्रिटिश सरकार ने सिर्फ जब्त ही नहीं किया बल्कि अंग्रेजी भाषा में अनुवाद करवाकर पूरे हिंदुस्तान की खुफिया पुलिस और जिअल कलेक्टर्स को सरकारी टिप्पणियों के साथ भी भेजा था कि इसमें जो कुछ भी बिस्मिला ने लिखा है वह बिलकुल सत्य नहीं है।
उसने सरकार पर जो भी आरोप लगाए हैं वे निराधार हैं। कोई भी हिंदुस्तानी जो सरकारी सेवा में है इसे सच न माने। इस सरकारी टिप्पणी से इस बात का पता चला कि ब्रिटिश सरकार ने बिस्मिला को इतना अधिक खतरनाक समझ लिया था कि उनकी आत्मकथा से सरकारी तंत्र में बगावत फैलने का भय हो गया था।
आज के समय में उत्तर प्रदेश के सी०आई०डी० हेडक्वार्टर लखनऊ के गोपनीय विभाग में मूल आत्मकथा का अंग्रेजी अनुवाद आज भी सुरक्षित रखा हुआ है। रामप्रसाद बिस्मिल जी की जो आत्मकथा काकोरी षडयंत्र के नाम से आज पाकिस्तान के सिंध प्रांत में तत्कालीन पुस्तक प्रकाशक भजनलाल बुकसेलर ने आर्ट प्रेस, सिंध से पहली बार सन् 1927 में बिस्मिल को फांसी दिए जाने के कुछ दिनों के बाद ही प्रकाशित कर दी थी।
वह भी सरफरोशी की तमन्ना ग्रंथावली के भाग तीन में अविकल रूप से सुसम्पादित होकर सन् 1997 में आ चुकी है। यहाँ पर यह बताना भी जरूरी है कि सन् 1947 में स्वतंत्रता मिलने के बाद कुछ आर्यसमाजी लोगों ने इसे दुबारा प्रकाशित कराया था।
सरफरोशी की तमन्ना :
काकोरी कांड में गिरफ्तार होने के बाद अदालत में सुनवाई के दौरान क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल ने “सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है देखना है जोर कितना बाजु-ए-कातिल में है ?”की कुछ पंक्तियाँ कही थीं। बिस्मिल कविता और शायरी लिखने के बहुत शौकीन थे।
फांसी के फंदे को गले में डालने से पहले भी बिस्मिल ने ‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में हैं’ के कुछ शेर पढ़े थे। वैसे तो ये शेर पटना के अजीमाबाद के मशहूर शायर बिस्मिल अजीमाबाद की रचना थी लेकिन इसकी पहचान राम प्रसाद बिस्मिल को लेकर अधिक बन गई। राम प्रसाद बिस्मिल जी की पूरी गजल इस तरह से है –
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाज़ु-ए-कातिल में है?
वक्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आस्माँ! हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है?
एक से करता नहीं क्यों दूसरा कुछ बातचीत, देखता हूँ मैं जिसे वो चुप तेरी महफिल में है.
रहबरे-राहे-मुहब्बत! रह न जाना राह में, लज्जते-सेहरा-नवर्दी दूरि-ए-मंजिल में है.
अब न अगले वल्वले हैं और न अरमानों की भीड़, एक मिट जाने की हसरत अब दिले-‘बिस्मिल’ में है.
ए शहीद-ए-मुल्को-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार, अब तेरी हिम्मत का चर्चा गैर की महफिल में है.
खींच कर लाई है सब को कत्ल होने की उम्मीद, आशिकों का आज जमघट कूच-ए-कातिल में है.
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाज़ु-ए-कातिल में है?
है लिए हथियार दुश्मन ताक में बैठा उधर, और हम तैय्यार हैं सीना लिये अपना इधर.
खून से खेलेंगे होली गर वतन मुश्किल में है, सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है.
हाथ जिनमें हो जुनूं, कटते नही तलवार से, सर जो उठ जाते हैं वो झुकते नहीं ललकार से,
और भड़केगा जो शोला-सा हमारे दिल में है, सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है.
हम तो निकले ही थे घर से बांधकर सर पे कफन, जाँ हथेली पर लिये लो बढ चले हैं ये कदम.
जिंदगी तो अपनी महमां मौत की महफिल में है, सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है.
यूं खड़ा मकतल में कातिल कह रहा है बार-बार, “क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है?
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाज़ु-ए-कातिल में है?
दिल में तूफानों की टोली और नसों में इंकलाब, होश दुश्मन के उड़ा देंगे हमें रोको न आज.
दूर रह पाये जो हमसे दम कहाँ मंजिल में है! सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है.
जिस्म वो क्या जिस्म है जिसमें न हो खूने-जुनूँ, क्या वो तूफाँ से लड़े जो कश्ती-ए-साहिल में है.
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है। देखना है जोर कितना बाज़ु-ए-कातिल में है ?
बिस्मिल जी पर भगत सिंह जी के विचार :
जनवरी, 1928 के किरती में भगत सिंह जी ने काकोरी के शहीदों के बारे में लेख लिखा था। भगत सिंह जी ने ” काकोरी के शहीदों को फांसी के हालात ” शीर्षक लेख में बिस्मिल जी के विषय में लिखते हैं कि – श्री रामप्रसाद बिस्मिल बड़े होनहार नौजवान थे। गजब के शायर थे। देखने में भी बहुत सुंदर थे। बहुत योग्य थे।
जानने वाले कहते हैं कि अगर किसी और स्थान या किसी और देश या किसी और समय पैदा हुए होते तो सेनाध्यक्ष बनते। आपको पूरे षडयंत्र का नेता माना गया। चाहे बहुत ज्यादा पढ़े हुए नहीं थे लेकिन फिर भी पंडित जगतनारायण जैसे सरकारी वकील की सुध-बुध भुला देते थे। चीफ कोर्ट में अपनी अपील खुद ही लिखी थी जिससे जजों को कहना पड़ा कि इसे लिखने में अवश्य किसी बुद्धिमान और योग्य व्यक्ति का हाथ है।
बिस्मिल जी पर रज्जू भैया के विचार :
रज्जू भैया ने एक पुस्तक में बिस्मिल जी के बारे में लिखा है कि – मेरे पिता जी सन् 1921 से 1922 के करीब शाहजहाँपुर में इंजीनियर थे। उनके नजदीक ही इंजीनियरों की उस कॉलोनी में काकोरी कांड के प्रमुख सहयोगी श्री प्रेमकृष्ण खन्ना के पिता श्री रायबहादुर रामकृष्ण खन्ना भी रहते थे। श्री रामप्रसाद बिस्मिल जी प्रेमकृष्ण खन्ना से साथ बहुधा इस कॉलोनी के लोगों से मिलने आते थे।
मेरे पिता जी मुझे बताया करते थे कि बिस्मिल जी के प्रति सभी के मन में अपार श्रद्धा थी। उनका जीवन बड़ा शुद्ध और सरल, प्रतिदिन नियमित योग और व्यायाम की वजह से शरीर बड़ा पुष्ट, बलशाली और मुखमंडल ओज तथा तेज से व्याप्त था। उनके तेज और पुरुषार्थ की छाप उन पर जीवन भर बनी रही। मुझे भी एक सामाजिक कार्यकर्ता मानकर ये बिस्मिल जी के बारे में बहुत सी बातें बताया करते थे।
बिस्मिल जी पर रामविलास शर्मा के विचार :
हिंदी के प्रखर विचारक रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक ” स्वाधीनता संग्राम: बदलते परिप्रेक्ष्य ” में बिस्मिल जी के बारे में बहुत ही बेवाक टिप्पणी की है कि – ऐसा कब होता है कि एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी की छवि का वर्णन करे और दोनों ही शहीद हो जाएँ।
रामप्रसाद बिस्मिल 11 दिसंबर, 1927 को शहीद हुए, उससे पहले मई 1927 में भगत सिंह ने किरती में काकोरी के वीरों से परिचय लेख लिखा। उन्होंने बिस्मिल के विषय में लिखा कि ऐसे नौजवान कहाँ से मिल सकते हैं? आप युद्ध विद्या में बड़े कुशल है और आज उन्हें फांसी का दंड मिलने की वजह भी बहुत हद तक यही है।
इस वीर को फांसी का दंड मिला और आप हंस दिए। ऐसा निर्भीक वीर, ऐसा सुंदर जवान, ऐसा योग्य और उच्चकोटि का लेखक और निर्भय योद्धा मिलना बहुत मुश्किल है। सन् 1922 से 1927 तक रामप्रसाद बिस्मिल ने एक लंबी वैचारिक यात्रा पूरी की। उनके आगे की कड़ी थे भगत सिंह।