इन्द्र मुद्रा
हमारा शरीर जिन पांच तत्वों से मिलकर बना है , हमारे हाथ की पांच उंगलिया उन तत्वों का प्रतिनिधत्व करती हैं जैसे – अगूंठा अग्नि का , तर्जनी वायु का , मध्यमा आकाश का , अनामिका पृथ्वी का तथा कनिष्ठा जल तत्व का प्रतिनिधत्व करती हैं। अब हम बात करते हैं इंद्र मुद्रा की। गर्मी में इंद्र मुद्रा (वरुण मुद्रा ) हमारे शरीर के जल – तत्व को संतुलितत करता है। इससे प्यास की अनुभूति कम होती है और लू से भी बचाव होता है।
इन्द्र मुद्रा करने की विधि :-
1- सबसे पहले आप जमीन पर कोई चटाई बिछाकर उस पर पद्मासन या सिद्धासन में बैठ जाएँ , ध्यान रहे की आपकी रीढ़ की हड्डी सीधी हो।
2- अब अपने दोनों हाथों को घुटनों पर रखे और हाथों की हथेली आकाश की तरफ होनी चाहिए।
3- कनिष्ठ उंगली के अग्रभाग को अंगूठे के अग्रभाग से मिला दें और शेष तीनों उंगलियां सीधी रखें।
मुद्रा करने का समय :-
इसका अभ्यास हर रोज़ करेंगे तो आपको अच्छे परिणाम मिलेंगे। सुबह के समय और शाम के समय इस मुद्रा का अभ्यास करना अधिक लाभकारी होता है। इस मुद्रा का अभ्यास प्रातः एवं सायंकाल को 16-16 मिनट के लिए किया जा सकता है।
इन्द्र मुद्रा के फायदे :-
1. इस मुद्रा के सामान्य प्रयोग से त्वचा कोमल , मुलायम व स्निग्ध रहती है। चेहरे पर झुर्रियां नहीं पड़तीं एवं योवन लम्बे समय तक बना रहता है। नारी सोंदर्य के लिए यह मुद्रा किसी सोंदर्य प्रसाधन से कम नहीं है।
2. अनेक प्रकार के त्वचा के रोग इस मुद्रा से ठीक होते हैं। जैसे कि दाद, खुजली, एग्जीमा, सोरायसिस , हरपीज इत्यादि। सर्दियों में शुष्क, ठण्डी हवाओं से त्वचा सूखने लगती है। उस पर रूखापन आ जाता है। इस कारण सर्दियों में बिना त्वचा के रोग के भी खारिश होती है। इससे बचाव के लिए यह मुद्रा करें।
3. ग्रीष्म ऋतु में प्राय: अतिसार, डायरिया , पतले दस्त लग जाते हैं। दो चार दस्त आने से ही हम निढाल से हो जाते हैं। ऐसा शरीर में पानी की कमी से होता है। बच्चे तो बहुत जल्दी इस रोग से ग्रस्त हो जाते हैं। इससे हमारे शरीर में जल की कमी हो जाती है , जिसे डी-हयिड्रेशन कहते हैं। डॉक्टर ऐसे में ओ. आर.एस.अथवा पानी-नमक-चीनी का घोल बार-बार पीने की सलाह देते हैं। कई बार तो स्थिति भयंकर हो जाती है और अस्पताल में भर्ती भी होना पड़ जाता है। ऐसी स्थिति में इस मुद्रा को करने से चमत्कारी लाभ होता है। प्रत्येक बार पेशाब जाने के बाद इस मुद्रा को करते रहने से जल तत्व की कमी नहीं होती , शरीर में कमजोरी नहीं होती और शक्ति बनी रहती है। दस्त में यह मुद्रा जीवन रक्षक का काम करती है।
4. मूत्र रोगों में , गुर्दे के रोगों में जब बार-बार पेशाब के लिये जाना पड़ता है तो ये मुद्रा लगाने से आराम मिलेगा।
5. मधुमेह के रोग में भी पेशाब अधिक आता है,रात को कई बार पेशाब करना पड़ता है। इस मुद्रा को करने से इसमें आराम मिलेगा।
6. तेज बुखार में प्यास बहुत लगती है , होंठ सूखने लगते हैं। कई बार होंठ फट भी जाते हैं। ऐसे में यह मुद्रा लगाएं।
7. बुखार के कारण अथवा किसी अन्य कारण से मूंह का स्वाद बिगड़ जाता है, तो उसे ठीक करने के लिए यह मुद्रा लगाएं।
8. यदि आँखों में जलन हो , सूखापन हो तो यह मुद्रा लगाएं।
9. हमारे रक्त का 80% भाग जल होता है। उच्च रक्तचाप के कारण , मधुमेह के कारण , कोलेस्ट्रोल बढ़ जाने के कारण जब रक्त गाढ़ा हो जाता है , तो रक्त को सामान्य बनाने के लिये , रक्त की गुणवत्ता के लिये , ख़राब कोलेस्ट्रोल से बचने के लिये ,इस मुद्रा का प्रयोग करें। इससे रक्त संचार ठीक रहेगा , रक्त के रोग नहीं होंगे। रक्त प्रवाह की तरलता बनी रहेगी और रक्त द्वारा पूरे शरीर में ऑक्सीजन और प्राणों का संचार भली भांति होता रहेगा।
10. ग्रीष्म ऋतु में इस मुद्रा को लगाने से विशेष लाभ प्राप्त होता है। हम अधिक प्यास से बचे रह सकते हैं , लू नहीं लगती ,शीतलता मिलती है।
11. गैस की समस्या में भी यह मुद्रा लाभदायक है।
12. शरीर में जल की कमी से मांसपेशियों में अकडन आ जाती है। उनमें ऐंठन एवं तनाव उत्पन्न हो जाता है। यह मुद्रा मांसपेशियों को शिथिलता प्रदान करते हुए हमें ऐसी स्थिति से बचाती हैं।
13. फोड़े, फुंसियों , कील ,मुंहासों में भी यह मुद्रा लाभकारी है। अम्ल पित्त के बढ़ जाने से होने वाले रोग शांत हो जाते हैं।
14. अंगूठे के अग्रभाग से छोटी उंगली के अग्रभाग को रगड़ने से मूर्छा भी दूर होती है।
सावधानियां :-
यह मुद्रा खाली पेट करनी चाहिए। इस मुद्रा को करते समय अपना ध्यान भटकना नहीं चाहिए।