विपश्यना क्या है :
विपश्यना एक ध्यान की विधि है। जिसको बुद्ध जी ने पुनर्जीवित किया। यह ऐसी ध्यान की विधि है जिससे सबसे ज्यादा लोगों ने बुद्धत्व तथा ज्ञान को प्राप्त किया। विपस्सना का अर्थ है: अपनी श्वास का निरीक्षण करना, श्वास को देखना। यह योग या प्राणायाम नहीं है। श्वास को लयबद्ध नहीं बनाना है; उसे धीमी या तेज नहीं करना है। विपस्सना तुम्हारी श्वास को जरा भी नहीं बदलती। इसका श्वास के साथ कोई संबंध नहीं है। श्वास को एक उपाय की भांति उपयोग करना है ताकि तुम द्रष्टा हो सको। क्योंकि श्वास तुम्हारे भीतर सतत घटने वाली घटना है। अगर तुम अपनी श्वास को देख सको तो विचारों को भी देख सकते हो। विपश्यना आत्मनिरीक्षण की एक प्रभावकारी विधि है। इससे आत्मशुद्धि होती है। यह प्राणायाम और साक्षीभाव का मिला-जुला रूप है। दरअसल, यह साक्षीभाव का ही हिस्सा है। चिरंतन काल से ऋषि-मुनि इस ध्यान विधि को करते आए हैं। भगवान बुद्ध ने इसको सरलतम बनाया। इस विधि के अनुसार अपनी श्वास को देखना और उसके प्रति सजग रहना होता है। देखने का अर्थ उसके आवागमन को महसूस करना।
कैसे करें विपश्यना : विपस्सना ध्यान को तीन प्रकार से किया जो सकता है।
पहली विधि :
अपने कृत्यों, अपने शरीर, अपने मन, अपने ह्रदय के प्रति सजगता। चलो, तो होश के साथ चलो, हाथ हिलाओ तो होश से हिलाओ,यह जानते हुए कि तुम हाथ हिला रहे हो। तुम उसे बिना होश के यंत्र की भांति भी हिला सकते हो। तुम सुबह सैर पर निकलते हो; तुम अपने पैरों के प्रति सजग हुए बिना भी चल सकते हो।
अपने शरीर की गतिविधियों के प्रति सजग रहो। खाते समय,उन गतिविधियों के प्रति सजग रहो जो खाने के लिए जरूर होती है। नहाते समय जो शीतलता तुम्हें मिल रही है। जो पानी तुम पर गिर रहा है। और जो अपूर्व आनंद उससे मिल रहा है उस सब के प्रति सजग रहो—बस सजग रहो। यह जागरूकता की दशा में नहीं होना चाहिए।
और तुम्हारे मन के विषय में भी ऐसा ही है। तुम्हारे मन के परदे पर जो भी विचार गूजरें बस उसके द्रष्टा बने रहो। तुम्हारे ह्रदय के परदे पर से जो भी भाव गूजरें, बस साक्षी बने रहो। उसमें उलझों मत। उसे तादात्म्य मत बनाओ, मूल्यांकन मत करो कि क्या अच्छा है, क्या बुरा है; वह तुम्हारे ध्यान का अंग नहीं है।
दूसरी विधि :
दूसरी विधि है श्वास की; अपनी श्वास के प्रति सजग होना। जैसे ही श्वास भीतर जाती है तुम्हारा पेट ऊपर उठने लगता है, और जब श्वास बहार जाती है तो पेट फिर से नीचे बैठने लगता है। तो दूसरी विधि है पेट के प्रति—उसके उठने और गिरने के प्रति सजग हो जाना। पेट के उठने और गिरने का बोध हो……ओर पेट जीवन स्त्रोत के सबसे निकट है। क्योंकि बच्चा पेट में मां की नाभि से जूड़ा होता है। नाभि के पीछे उसके जीवन को स्त्रोत है। तो जब तुम्हारा पेट उठता है, तो यह वास्तव में जीवन ऊर्जा है, जीवन की धारा है जो हर श्वास के साथ ऊपर उठ रही है। और नीचे गिर रही है। यह विधि कठिन नहीं है। शायद ज्यादा सरल है। क्योंकि यह एक सीधी विधि हे।
पहली विधि में तुम्हें अपने शरीर के प्रति सजग होना है, अपने मन के प्रति सजग होना है। अपने भावों, भाव दशाओं के प्रति सजग होना है। तो इसमें तीन चरण हैं। दूसरी विधि में एक ही चरण है। बस पेट ऊपर और नीचे जा रहा है। और परिणाम एक ही है। जैसे-जैसे तुम पेट के प्रति सजग होते जाते हो, मन शांत हो जाता है, ह्रदय शांत हो जाता है। भाव दशाएं मिट जाती है।
तीसरी विधि :
जब श्वास भीतर प्रवेश करने लगे, जब श्वास तुम्हारे नासापुटों से भीतर जाने लगे तभी उसके पति सजग हो जाना है।
उस दूसरी अति पर उसे अनुभव करो—पेट से दूसरी अति पर—नासापुट पर श्वास का स्पर्श अनुभव करो। भीतर जाती हई श्वास तुम्हारे नासापुटों को एक प्रकार की शीतलता देती है। फिर श्वास बाहर जाती है…..श्वास भीतर आई, श्वास बहार गई।
विपश्यना का लाभ :
1- इसको करने से व्यक्ति तनाव मुक्त हो जाता है।
2- इस ध्यान को करने से नकारात्मक विचार खत्म हो जाते हैं।
3- मन और मस्तिस्क बिलकुल शांत रहता है।
4- मन में हमेशा शांति बनी रहती है।
5- सिद्धियां स्वत: ही सिद्ध हो जाती है।