झांसी की रानी लक्ष्मीबाई :
भारत भूमि पर मर मिटने वालों में सबसे आगे महारानी लक्ष्मी बाई का नाम कौन नहीं जानता। भारतीय भूमि पर सिर्फ वीर पुरुषों ने ही जन्म नहीं लिया बल्कि वीर नारियों ने भी जन्म लिया है ऐसी ही नारियों में अग्रणी थीं महारानी लक्ष्मी बाई। भारतीय वसुंधरा को गौरवांवित करने वाली झाँसी की रानी वीरांगना लक्ष्मी बाई वास्तविक अर्थ में आदर्श वीरांगना थीं।
एक सच्चा वीर कभी भी कठिनाईयों में घबराता नहीं है। किसी भी प्रकार का प्रलोभन उसे उसके कर्तव्य से विमुख नहीं कर सकता है। सच्चे वीर का लक्ष्य उदार और उच्च होता है। उसका चरित्र अनुकरणीय होता है। अपने पवित्र उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वह हमेशा आत्मविश्वासी , कर्तव्य परायण , स्वाभिमानी और धर्मनिष्ठ होता है। ऐसी ही वीरांगना थी हमारी रानी लक्ष्मी बाई।
रानी लक्ष्मी बाई मराठा शासित झाँसी राज्य की रानी थी। वह सन् 1857 के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की नायिका थी। महारानी लक्ष्मी बाई की वीरता , त्याग और बलिदान पर हम भारतीयों को बहुत गर्व है। रानी लक्ष्मी बाई के निविदा श्रोर में एक शेर की आत्मा थी। रानी लक्ष्मी बाई एक ऐसी वीरांगना थी जिन्होंने युद्ध में यह दिखा दिया था कि अपने अधिकारों तथा देश की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए भारत की महिलाएं पुरुषों से पीछे नहीं हैं।
रानी लक्ष्मी बाई का जन्म और बाल्यकाल :
रानी लक्ष्मी बाई का जन्म 19 नवंबर 1828 में वाराणसी में हुआ था। रानी लक्ष्मी बाई का पूरा नाम मणिकर्णिका ताम्बे थे। रानी लक्ष्मी बाई को बचपन से ही मनुबाई के नाम से जाना जाता था। विवाह के बाद इनका नाम लक्ष्मी बाई रखा गया था। मनुबाई का पालन-पोषण बाजीराव पेशवा में होने की वजह से मनुबाई पेशवा बाजीराव के पुत्र नाना साहब के साथ खेलती थीं और स्वभाव से नटखट-चंचल थी इसी कारण सभी उन्हें छबीली कहकर बुलाते थे।
कन्या के जन्म पर मोरोपंत और उनकी पत्नी भागीरथी बाई को बहुत अधिक प्रसन्नता हुई थी। उनके सभी संबंधियों और परिचितों ने उन्हें कन्यारत्न की प्राप्ति पर बधाईयाँ दी। नवजात शिशु को चिरायु होने का आशीर्वाद दिया तथा कामना व्यक्त की कि वह बालिका परम पराक्रमशालिनी तथा यशस्विनी बने। सहजभाव से दिया गया यह आशीर्वाद कालांतर में सत्य सिद्ध हुआ था।
ऐसा माना जाता है कि इस कन्या के जन्म पर ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी कि यह कन्या राजलक्ष्मी युक्त और अनुपम शौर्यशालिनी होगी। उस समय नवजात अबोध बालिका के शांत , सौम्य और निश्चल मुख को देखकर कोई भी यह नहीं कह सकता था कि यह बालिका अपने स्वाधीनता प्रेम तथा राज्य की रक्षा के लिए इतिहास के स्वर्णिम अध्याय की सर्जना करेगी।
रानी लक्ष्मी बाई के माता-पिता :
रानी लक्ष्मी बाई के पिता का नाम मोरोपंत ताम्बे था और माता का नाम भागीरथी बाई था। रानी लक्ष्मी बाई के पिता एक महाराष्ट्रियन ब्राह्मण थे और माता जी भागीरथी बाई एक सुसंस्कृत , बुद्धिमान एवं धार्मिक महिला थीं। रानी लक्ष्मी बाई के माता-पिता एक-दूसरे से अगाध प्रेम करते थे।
रानी लक्ष्मी बाई जी के माता-पिता महाराष्ट्र से संबंध रखते थे। रानी लक्ष्मी बाई के पिता मोरोपंत ताम्बे चिकनाजी अप्पा के आश्रित थे क्योंकि मोरोपंत एक मराठी थे और मराठा बाजीराव की सेवा में थे। महारानी के पितामह बलवंत राव के बाजीराव पेशवा की सेना में सेनानायक होने की वजह से मोरोपंत पर भी पेशवा की कृपा रहने लगी थी। रानी लक्ष्मी बाई जी की माता जी देवी धर्म और संस्कृति की साक्षात् प्रतिमूर्ति थीं उन्होंने बचपन से ही मनुबाई को बहुत-सी धार्मिक सांस्कृतिक और शौर्यपूर्ण कथाएं सुनाई थीं।
माता से वियोग :
मनु जब चार साल की थीं तब उनकी माता की मृत्यु हो गई थी। माँ की मृत्यु के बाद इनका पालन पोषण पिता जी ने ही किया था। मनुबाई जी का लालन-पालन बाजीराव पेशवा के संरक्षण में हुआ था। माता की मौत के बाद रानी के पिता उन्हें बिठूर ले गए। बिठूर में ही मनु ने मल्लविद्या , घुड़सवारी और शस्त्र विद्याएँ सीखीं थीं। घर में मनुबाई की देखभाल के लिए कोई नहीं था इसलिए मोरोपंत उन्हें अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले जाते थे जहाँ पर चंचल और नटखट मनु ने सबका मन मोह लिया था। बाजीराव जी मनु को प्यार से छबीली कहकर पुकारते थे।
आम लडकियों से अलग :
मनु ने बचपन से ही शास्त्रों की शिक्षा के साथ शस्त्रों की शिक्षा भी प्राप्त की थी। मोरोपंत जी पेशवा बाजीराव के यहाँ पर नौकर थे। लक्ष्मीबाई बचपन से ही पुरुषों के योग्य खेलों में अधिक रूचि लेती थी। रानी लक्ष्मीबाई ने घुड़सवारी , तीर-कमान चलाना , तलवार चलाना आदि कौशल सीखे थे। नाना साहब के पुरुषों जैसे वस्त्र पहनकर व्यूह रचना करने में छबीली ने अधिक रूचि ली थी। अस्त्र-शस्त्र विद्या में वह जल्द ही निपुण हो गईं थीं।
रानी लक्ष्मी बाई का वैवाहिक जीवन :
सन् 1838 में गंगाधर राव को झाँसी का रजा घोषित कर दिया गया था। वे विधुर थे। सन् 1850 में मनुबाई से उनका विवाह हुआ था। विवाह बाद मनु का नाम बदलकर रानी लक्ष्मी बाई रख दिया गया था। लेकिन विधि की विडंबना कुछ और ही थीं। सन् 1851 में अपने विवाह से लगभग 9 साल बाद उन्हें एक पुत्र पैदा हुआ।
पुत्र पैदा होने पर झाँसी के कोने-कोने में आनंद की लहर प्रवाहित हुई लेकिन तीन महीने बाद उस बच्चे का निधन हो गया। इस शोक समाचार से पूरी झाँसी शोक सागर में डूब गई। राजा गंगाधर राव को पुत्र की मृत्यु का तथा अधिक उम्र तक पुत्र न होने का बहुत गहरा धक्का पहुंचा की वे उसके बाद कभी स्वस्थ न हो सके और 21 नवंबर , 1853 को इनका निधन हो गया। रानी लक्ष्मी बाई दो साल के बाद ही विधवा हो गईं थीं।
राजा जी की मृत्यु से महाराज का निधन रानी लक्ष्मी बाई के लिए असहनीय था लेकिन फिर भी वो घबराई नहीं और न ही उन्होंने अपना विवेक खोया। राजा गंगाधर राव जी ने अपनी मृत्यु से पहले ही अपने परिवार के बच्चे दामोदर राव को दत्तक पुत्र मानकर अंग्रेजी सरकार को सुचना दे दी थी। लेकिन ईस्ट इण्डिया कंपनी की सरकार ने उस दत्तक पुत्र को अस्वीकार कर दिया।
रानी लक्ष्मी बाई का प्रारंभिक जीवन :
मनुबाई के जीवन पर माता-पिता दोनों का ही बहुत गहरा प्रभाव पड़ा था। बचपन में मनुबाई की माता जी उन्हें बहुत सी धार्मिक कहानियां सुनाती थीं उससे बालिका मनुबाई का अंत:करण और ह्रदय उच्च और महान उज्ज्वल गुणों से भरता गया था। रानी लक्ष्मी बाई में बचपन से ही स्वदेश प्रेम और वीरता के गुण कोमल मन में कूट-कूटकर भरे हुए थे।
मनुबाई बचपन से ही अति कुशाग्र बुद्धि तथा प्रतिभा की धनी थीं। रानी लक्ष्मी बाई बहुत ही वीर थीं उनकी वीरता की वजह से बड़े-बड़े लोग उनसे लोहा मानते थे। मनुबाई ने बचपन ने अपनी माँ से अनेक वीरों की गाथाएं सुनी थीं जिसकी वजह से वे देशभक्ति की भावना से भर जाती थीं। एक बार बचपन में जब रानी लक्ष्मी बाई काशी के घाट की सीढियों पर बैठी हुई थीं तभी कुछ अंग्रेज उस रास्ते से नीचे उतर रहे थे।
अंग्रेजों ने मनुबाई को रास्ते से हटने के लिए कहा लेकिन वे दृढनिश्चयी की तरह वहीं पर बैठी रहीं क्योंकि बचपन से ही अंग्रेजों के प्रति उनके मन में रौष भरा था। अंग्रेजों ने उन्हें बच्ची समझकर दूसरे रास्ते से निकलना उचित समझा लेकिन अंग्रेजों को यह नहीं पता था कि यह बच्ची उनके वजूद को मिटाने की हिम्मत रखती है। बचपन में बाजीराव पेशवा उन्हें वीरता भरी कहानियां सुनाया करते थे जिन्होंने उनके ह्रदय में स्वतंत्रता के प्रति प्रेम पैदा कर दिया था।
रानी लक्ष्मी बाई ने भारतीय नारियों की दासतापूर्ण मानसिकता को ध्वस्त कर दिया था। रानी ने इस आश्चर्यजनक काम को तब किया था जब सभी भारतीय राजा अपनी आभा खो चुके थे अथवा ब्रिटिश साम्राज्य के सूर्य के समक्ष तेजहीन हो चुके थे। रानी लक्ष्मी बाई ने नारियों के अबला होने की उस मीठी धारणा को निराधार कर दिया था जो सदियों से भारतीय जनमानस में अपनी गहरी जड़े जमा चुकी थी।
रानी ने इस बात को सिद्ध कर दिया था कि भरतीय नारी अबला नहीं होती हैं बल्कि उसे मानसिक रूप से अबला बना दिया गया था। समय आने पर एक नारी सबला ही नहीं बल्कि एक वीरांगना भी बन सकती हैं। रानी जी ने चिरकाल तक दासता की नींद में सोई हुई भारतीय नारी को उनकी नींद से जगाया और इतिहास में एक नवीन गरिमामय अध्याय की सर्जना की। रानी लक्ष्मी बाई नारी जाती का ही गौरव नहीं बल्कि एक प्रात: स्मरणीय ऐतिहासिक विभूति हैं।
रानी लक्ष्मी बाई का वंश परिचय :
महाराष्ट्र के पास एक कृष्णा नदी बहती है। इसी कृष्णा नदी के तट पर वाई नामक एक गाँव स्थित है। मराठा साम्राज्य के संस्थापक छत्रपति शिवाजी महाराज के उत्तराधिकारी योग्य सिद्ध हुए और साम्राज्य पर पेशवाओं का अधिकार हो गया। पेशवाओं के शासनकाल में वाई नामक गाँव के कृष्णराव ताम्बे जो एक ब्राह्मण थे किसी उच्च राजकीय पद पर नियुक्त थे।
उनका बलवंत नाम का एक पुत्र था जो बहुत ही वीर और पराक्रमी था। उसकी वीरता से प्रसन्न होकर पेशवा के द्वारा उसे सेना में के सम्मानित पद प्राप्त हुआ था। इस तरह से पिता और पुत्र दोनों पर ही पेशवाओं की कृपा रहने लगी थी और दोनों को ही उच्च पद प्राप्त हुए। दोनों ने ही अपने पदों पर पर्ण योग्यता से काम किया नहीं तो इस कृपा का परंपरागत रूप में बने रहना असंभव था।
बलवंत के मोरोपंत और सदाशिव नाम के दो पुत्र हुए थे। उनकी यह परंपरा दो पीढ़ियों से चली आ रही थी और तीसरी पीढ़ी में भी यह परंपरा अक्षुण्ण बनी रही थी। पेशवा बाजीराव द्वितीय के भाई चिमाजी आपा साहब और मोरोपंत में अंतरंग मित्रता थी। सन् 1818 में जब पेशवा बाजीराव ने अंग्रेजों से आठ लाख वार्षिक पेंशन लेकर पद से त्याग पत्र दे दिया तो अंग्रेजों ने चिमाजी आपा साहब के सम्मुख प्रस्ताव रखा कि वह पेशवा को पद स्वीकार कर लें किन्तु उन्होंने इसे अस्वीकार कर दिया क्योंकि अंग्रेजों के अधीन अधिकारविहीन पेशवाई को वह अर्थहीन समझते थे।
इसके बाद मोरोपंत तांबे भी बनारस आ गए। वह चिमाजी आपा साहब के सचिव का काम करते थे जिसके लिए उन्हें पचास रूपए प्रति महीने वेतन मिलता था।
मोरोपंत का बाजीराव की शरण जाना :
मनुबाई चन्द्रमा की कलाओं के समान बढने लगी थी इसी बीच मोरोपंत को एक भीषण आघात लगा। उनके परम दयालु आश्रयदाता चिमाजी आपा साहब का देहांत हो गया। एक सच्चे सुह्रद के चल बसने पर मोरोपंत जी आश्रयविहीन हो गए थे। उनके पास आजीविका निर्वाह का भी कोई साधन नहीं रह गया था। उनके सामने एक बहुत ही विकट समस्या उत्पन्न हो गई थी। उनकी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था कि क्या करें।
इस संकट की घड़ी में उन्हें पूर्व पेशवा बाजीराव ने आश्रय देकर अपनी कुल परंपरागत उदारता का भी परिचय दिया जो खुद इस समय महाराष्ट्र छोडकर उत्तरी भारत में निर्वासित जैसा जीवन यापन कर रहे थे। मोरोपंत बाजीराव की इस उदारता से अभिभूत होकर उन्ही के आश्रम में रहने लगे थे। उन्हें अपने पारिवारिक दायित्वों के निर्वाह में कोई कठिनाई नहीं पहुंची थी।
ब्रितानी राज्य :
जब रानी लक्ष्मी बाई के पति गंगाधर राव की मृत्यु हुई थी तब अंग्रेजी साम्राज्य धीरे-धीरे पूरे हिंदुस्तान पर अपना अधिकार स्थापित कर रहा था। लहुजी की राज्य हडपने की नीति के अंतर्गत ब्रितानी राज्य ने दामोदर राव जो कि उस समय बालक थे को झाँसी राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया और झाँसी राज्य को ब्रितानी राज्य में मिलाने का फैसला कर लिया था।
उस समय रानी लक्ष्मी बाई ने ब्रितानी वकील जान लैंग की सलाह ली और लंदन की अदालत में मुकदमा दायर किया। मुकदमे में बहुत बहस हुई लेकिन इस मुकदमे को खारिज कर दिया गया। ब्रितानी अधिकारीयों ने राज्य का खजाना जब्त कर लिया और उनके पीटीआई के कर्ज को रानी के सालाना खर्च में से काट लिया गया। इसके साथ ही रानी को झाँसी के किले को छोडकर झाँसी के रानीमहल में जाना पड़ा था लें रानी लक्ष्मी बाई ने हर कीमत पर झाँसी राज्य की रक्षा करने का फैसला लिया था।
झाँसी का युद्ध :
झाँसी सन् 1857 के विद्रोह का एक प्रमुख केंद्र बन गया जहाँ पर हिंसा भडक उठी थी। रानी लक्ष्मी बाई ने झाँसी की सुरक्षा को सुदृढ करना शुरू कर दिया था और एक स्वंयसेवक सेना का गठन शुरू किया। इस सेना में महिलाओं को भी भर्ती किया गया था और उन्हें युद्ध प्रशिक्षण भी दिया गया था। आम जनता ने भी इस विद्रोह में अपना-अपना सहयोग दिया था।
मुन्दर और झलकारी सखियों ने भी अपने साहस के साथ हर क्षण रानी का साथ दिया था। रानी के किले की मजबूत किलाबंदी की गई थी। रानी लक्ष्मी बाई के कौशल को देखकर अंग्रेज सेनापति सर ह्यूरोज भी हैरान रह गया था। अंग्रेजों ने किले को चरों तरफ से घेर कर आक्रमण किया था।
अंग्रेजों ने आठ दिनों तक किले पर गोला बारूद बरसाए थे लेकिन फिर भी किला न जीत सके। रानी लक्ष्मी बाई और उनकी प्रजा ने प्रतिज्ञा ली थी कि अपनी अंतिम साँस तक किले की रक्षा करेंगे। अंग्रेज ह्यूरोज ने यह अनुभव किया की सैन्य बल से किले को जीतना असंभव है। उसने कूटनीति का प्रयोग किया और झाँसी के ही एक विश्वासघाती सरदार दूल्हा सिंह को मिला लिया जिसने किले का दक्षिणी दरवाजा खोल दिया।
अंग्रेजी सेना किले में घुस गई और लूटपाट तथा हिंसा का पैशाचिक दृश्य उपस्थित कर दिया। घोड़े पर सवार होकर दाहिने हाथ में नंगी तलवार लिए , पीठ पर पुत्र को बांधे हुए रानी लक्ष्मी बाई ने रणचंडी का रूप धारण कर लिया और शत्रु दल संहार करने लगीं थीं। झाँसी के वीर सैनिक भी शत्रुओं पर टूट पड़े थे। जब वीर सैनिक युद्ध के लिए तैयार हुए तब धरती जय भवानी और हर-हर महादेव के उद्घोष से गूंज उठी थी।
लेकिन झाँसी की सेना अंग्रेजों की तुलना में बहुत छोटी थी। सन् 1857 में पड़ोसी राज्य ओरछा तथा दतिया के राजाओं ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया। रानी लक्ष्मी बाई ने इसे सफलता पूर्वक विफल कर दिया था। सन् 1858 के जनवरी महीने में ब्रितानी सेना ने झाँसी की ओर अपने कदम बढ़ाना शुरू कर दिया और मार्च के महीने में शहर को घेर लिया। दो सप्ताह की लड़ाई के बाद ब्रितानी सेना ने शहर पर कब्जा कर लिया।
लेकिन रानी लक्ष्मी बाई दम्द्र राव के साथ भाग निकलने में सफल हो गईं। विशाल अंग्रेजी सेना को मारते-मारते रानी लक्ष्मी बाई अंग्रेजी सेना की पकड़ से बहुत दूर निकलती गई थीं लेकिन अंग्रेज सैनिक रानी लक्ष्मी बाई का निरंतर पीछा करते रहे थे। रानी चारों तरफ से अंग्रेजों से घिर चुकी थीं। अंत में ग्वालियर में दोनों के बीच घमासान लड़ाई हुई रानी का घोडा भी थक चुका था।
फलत: एक नाला पार करने के क्रम में घोडा रुक गया और इतने में पीछे से एक सैनिक ने उनके सिर पर वार किया तथा दूसरे सैनिक ने वार करके रानी लक्ष्मी बाई के शरीर का बायाँ भाग काट दिया। इस अवस्था में रानी ने उस सैनिक के भी टुकड़े-टुकड़े कर डाले और खुद वीरगति को प्राप्त हो गईं।
दोनों अंग्रेजी सैनिकों को मारकर रानी लक्ष्मी बाई खुद जमीन पर गिर गईं थीं। पठान सरदार गौस खां इस समय में भी रानी लक्ष्मी बाई के साथ थे। पठान सरदार गौस खां का रौद्र रूप देखकर अंग्रेजी सैनिक भाग खड़े हुए थे। स्वामिभक्त रामराव देखमुख अंत तक रानी लक्ष्मी बाई के साथ रहे थे।
अंग्रेजी सेना द्वारा आक्रमण :
रजा गंगाधर राव की मौत के बाद अंग्रेजों ने रानी को असहाय और कमजोर समझकर झाँसी छोड़ने की आगया दे दी। रानी ने अंग्रेजों को स्पष्ट रूप से उत्तर दे दिया कि झाँसी मेरी है मैं प्राण रहते इसे नहीं छोड़ सकती। रानी लक्ष्मी बाई के उत्तर से खिन्न होकर अंग्रेजी सेना ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया लेकिन रानी लक्ष्मी बाई पहले से ही अंग्रेजी सेना का मुकाबला करने के लिए तैयार बैठी थी।
अंग्रेजी के द्वारा आक्रमण होते ही रानी अपनी सेना के साथ घोड़े पर सवार होकर हाथ में तलवार लिए अंग्रेजों का सामान करने के लिए में आ खड़ी हुई थीं। रानी लक्ष्मी बायीं और अंग्रेजों में बहुत घमासान युद्ध हुआ। रानी लक्ष्मी बाई ने अंग्रेजों का डटकर सामना किया और अपने प्राणों के रहते उन्होंने अंग्रेजों को चैन की साँस न लेने दी।
रानी लक्ष्मी बाई का संघर्ष :
रानी लक्ष्मी बाई ने पति की मृत्यु के बाद भी हिम्मत नहीं हारी और पूरी जिम्मेदारी से शासन की बागडोर संभालने लगीं। अपना वंश चलाने के लिए रानी लक्ष्मी बाई ने एक बालक को गोद ले लिए लेकिन 27 फरवरी , 1854 को लार्ड डलहौजी ने गोद की निति के अंतर्गत दत्तकपुत्र दामोदर राव की गोद अस्वीकृत कर दी और झाँसी को अंग्रेजी राज्यों में मिलाने की घोषणा कर दी।
जब पोलेटिकल एजेंट की सुचना झाँसी की रानी को मिली तब रानी के मुख से यह वाक्य निकल पड़े कि मैं अपनी झाँसी नहीं दूंगी। दत्तक पुत्र को अस्वीकार करने के बाद गर्वनर जनरल लार्ड डलहौजी ने उन सभी राज्यों को अपने अधीन करने की घोषणा की जिनके राजा संतानहीन थे। रानी लक्ष्मी बाई ने इस घोषणा का स्पष्ट रूप से विरोध किया।
रानी लक्ष्मी बाई ने अंग्रेजी साम्राज्य का विरोध किया और उनकी किसी भी आगया को मानने से इंकार कर दिया। 7 मार्च , 1854 को झाँसी पर अंग्रेजों का अधिकार हुआ तब उन्होंने फैसला लिया कि जब तक वे झाँसी को दोबारा वापस नहीं ले लेतीं तब तक चैन से नहीं बैठूंगी। झाँसी की रानी में पेंशन अस्वीकृत कर दी व नगर के राजमहल में निवास करने लगीं थीं।
यहीं से भारत की प्रथम स्वाधीनता क्रांति का बीज प्रस्फुटित हुआ था। अंग्रेजों की राज्य लिप्सा की नीति से उत्तरी भारत के नवाब और राजा-महाराजा असंतुष्ट हो गए और सभी में विद्रोह की आग भडक उठी। रानी लक्ष्मी बाई ने इसे स्वर्ण अवसर माना और क्रांति की ज्वालाओं को अधिक सुलगाया तथा अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह करने की योजना बनाई।
नवाब वाजिद अली शाह की बेगम हजरत महल , अंतिम मुगल सम्राट की बेगम जीनत महल , मुगल सम्राट बहादुर शाह , नाना साहब के वकील अजीमुल्ला शाहगढ़ के रजा , वानपुर के रजा मर्दनसिंह और तात्या टोपे आदि सभी ने रानी लक्ष्मी बाई के इस काम में अपना पूरा सहयोग देने की कोशिश करने लगे थे।
रानी लक्ष्मी बाई का विद्रोह :
रानी लक्ष्मी बाई कुशल वीरांगना होने के साथ-साथ एक कुशल राजनीतिज्ञ भी थीं। महारानी का ह्रदय अंग्रेजों के प्रति नफरत से भर गया था और वह उनसे बदला लेने के लिए ठीक समय और अवसर की तलाश कर रही थीं। भारत की सभी रियासतों के राजाओं और नवाबों को जिनकी रियासतों को अंग्रेजों ने अपने राज्यों में मिला लिया था रानी लक्ष्मी बाई के साथ एकजुट होकर अंग्रेजों से भिड़ने के लिए तैयार हो गई थीं।
रानी लक्ष्मी बाई ने ईंट का जवाब पत्थर से देने के लिए युद्ध का शंखनाद किया जिससे अंग्रेजों के पैर उखड़ने लगे थे। भारत की जनता में उस समय विद्रोह की अग्नि प्रज्ज्वलित हो उठी थी। पूरे देश में सुसंगठित और सुदृढ रूप से क्रांति को कार्यान्वित करने की तारीख 31 मई , 1857 तय की गई थी लेकिन इससे पहले ही क्रांति की आग प्रज्ज्वलित हो गई और 7 मई , 1857 को मेरठ में और 4 जून , 1857 को कानपुर में भीषण विप्लव हो गए थे।
कानपुर 28 जून , 1857 में पूर्ण रूप से स्वतंत्र हो गया था। अंग्रेजों के कमांडर सर ह्यूरोज ने अपनी सेना को सुसंगठित करके विद्रोह दबाने की कोशिश की। उन्होंने सागर , गढ़कोटा , शाहगढ़ , मदनपुर , मडखेडा , वानपुर और तालबेहट पर अधिकार किया और नृशंसतापूर्ण अत्याचार किए और फिर झाँसी की तरफ अपने कदम बढाए तथा मोर्चा कैमासन पहाड़ी के मैदान में पूर्व और दक्षिण में मध्य लगा लिया।
महारानी लक्ष्मी बाई पहले से ही सचेत थीं और वानपुर के राजा मर्दनसिंह से इस युद्ध की और आगमन की सुचना पहले ही प्राप्त हो चुकी थी। 23 मार्च , 1858 को झाँसी का ऐतिहासिक युद्ध आरंभ हुआ था। कुशल तोपची गुलाम गॉस खां ने झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई के आदेश के अनुसार अपनी तोपों के लक्ष्य को साधकर ऐसे गोले फेंके कि पहली बार में ही अंग्रेजी सेना घबरा गई।
रानी लक्ष्मी बाई ने सात दिन तक वीरतापूर्वक झाँसी की सुरक्षा की और अपनी छोटी सी सशस्त्र सेना से अंग्रेजों का बहुत बहादुरी से मुकाबला किया। रानी लक्ष्मी बाई ने खुलेरूप से शत्रु का सामना किया और युद्ध में अपनी वीरता का परिचय दिया। रानी लक्ष्मी बाई अकेले ही अपनी पीठ के पीछे दामोदर राव क कसकर घोड़े पर सवार होकर अंग्रेजों से युद्ध करती रहीं थीं।
युद्ध का यह क्रम इस प्रकार बहुत दिनों तक चलना असंभव था। सरदारों का आग्रह मानकर रानी लक्ष्मी बाई ने कालपी के लिए प्रस्थान किया लेकिन वहां जाकर भी वे शांत नहीं बैठीं। उन्होंने नाना साहब और उनके योग्य सेनापति तात्या टोपे से संपर्क स्थापित किया और विचार-विमर्श किया। तात्या टोपे और रानी की संयुक्त सेनाओं ने ग्वालियर के विद्रोही सैनिकों की मदद से ग्वालियर के एक किले पर कब्जा कर लिया।
रानी लक्ष्मी बाई की वीरता और साहस का लोहा अंग्रेज मान गए थे लेकिन उन्होंने फिर भी रानी का पीछा किया। रानी लक्ष्मी बाई का घोडा बुरी तरह से घायल हो गया और वीरगति को प्राप्त हो गया लेकिन रानी ने साहस नहीं छोड़ा और शौर्य का प्रदर्शन किया। कालपी में महारानी लक्ष्मी बायीं और तात्या टोपे ने योजना बनाई और अंत में नाना साहब , वानपुर के राजा मर्दनसिंह आदि सभी ने रानी का साथ दिया।
रानी लक्ष्मी बाई ने ग्वालियर पर आक्रमण किया और वहां के किले पर अधिकार कर लिया। विजयोल्लास का उत्सव कई दिनों तक चलता रहा लेकिन रानी लक्ष्मी बाई इसके विरुद्ध थीं। वे समझती थीं की यह समय विजय का नहीं था बल्कि अपनी शक्ति को सुसंगठित कर अगला कदम बढ़ाने का था।
रानी लक्ष्मी बाई की मृत्यु :
सेनापति सर ह्यूरोज अपनी सेना के साथ संपूर्ण शक्ति से रानी का पीछा करता रहा और अंत में वह दिन भी आ गया जब उसने ग्वालियर का किला घमासान युद्ध करके अपने कब्जे में ले लिया था। रानी लक्ष्मी बाई इस युद्ध में भी अपनी कुशलता का परिचय देती रहीं थी। 18 जून , 1858 को ग्वालियर का अंतिम युद्ध हुआ था और रानी लक्ष्मी बाई ने अपनी सेना का कुशल नेतृत्व किया था।
जैसे ही रानी कालपी की तरफ बढने लगीं अचनक ही उनके पैर पर एक गोली आकर लगी जिससे उनकी गति धीमी हो गई। अंग्रेजों ने रानी लक्ष्मी बाई को चरों तरफ से घेर लिया था। रानी लक्ष्मी बाई बुरी तरह से घायल हो गई थीं। रामराव देशमुख ने रानी के रक्त रंजित शरीर को नजदीक के बाबा गंगादास की कुटिया में पहुंचाया था।
रानी लक्ष्मी बाई ने व्यथा से व्याकुल होकर पानी माँगा तब बाबा गंगादास ने उन्हें पानी पिलाया था। रानी लक्ष्मी बाई अपने सम्मान के प्रति हमेशा सजग रही थीं। उन्होंने यही कामना की थी कि युद्ध भूमि में लड़ते-लड़ते मर भी जाऊं तब भी मेरा शव अंग्रेजों के हाथ न लगे। रानी लक्ष्मी बाई का निधन 17 जून , 1858 को हुआ था तभी बाबा गंगादास ने अपनी कुटिया को ही चिता बनाकर उसमें आग लगा दी थी और उनका अंतिम संस्कार कर दिया था ताकि अंग्रेज उन्हें छू भी न सके।
रानी लक्ष्मी बाई ने स्वतंत्रता युद्ध में अपने जीवन की अंतिम आहुति देकर जनता को चेतना प्रदान की और स्वतंत्रता के लिए बलिदान का संदेश दिया। रानी लक्ष्मी बाई स्वतंत्रता संग्राम में पराजित तो हुईं थीं लेकिन उन्होंने देशवासियों के लिए स्वतंत्रता के बीज भी बो दिए थे। जिस हिम्मत और वीरता के साथ उन्होंने अंग्रेजी सेना से युद्ध किया था उससे सभी देशवासियों में साहस और जोश का संचार हुआ। अंग्रेजों ने खुद रानी लक्ष्मी बाई की वीरता को देखते हुए उन्हें भारतीय जॉन ऑफ आर्क की संज्ञा दी थी।