भाग्य और पुरुषार्थ :
भूमिका : हमारा भारतीय समाज बहुत से रुढियों से ग्रस्त है। धार्मिक जीवन में जो आडंबर होते हैं वे हमे रुढियों के बंधन में और अधिक आबद्ध करते हैं। हम सब गीता को मानते हैं लेकिन फिर भी हम उस पर कभी आचरण नहीं करते।
हम लोग कर्मयोगी बनने की जगह पर भाग्यवादी बन जाते हैं। यो भाग्यवादी होते हैं वो कर्महीन बन जाते हैं और पराश्रित रहकर अपना जीवन जीते हैं। वो हमेशा बस ये सोचते रहते हैं कि भगवान ने उसकी किस्मत या भाग्य में जो भी लिखा है उसे वही मिलेगा।
कर्मयोग : हमेशा आलसी लोग ही देवों, भाग्य, काल को अपने सुखों का श्रेय देते रहते हैं। आलसी लोग खुद तो कुछ करते नहीं है और जब उनकी असफलता होती है तो इस बात का दोष वे भगवान को देते हैं। ऐसे लोगों का जीवन तिरस्कार से नरक के बराबर हो जाता है। ऐसे लोगों से समाज भी नफरत करता है। इन लोगों का आत्म विश्वास कुंठित होता है। ऐसे लोग बस दुर्गति को ही प्राप्त होते हैं।
भाग्यवाद : ऐसे लोग हमेशा ऐसा ही समझते हैं कि कर्महीन व्यक्ति कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता। जो लोग भाग्य के भरोसे रहते हैं वे लोग बौद्धिक और आत्मिक शक्ति से रहित हो जाते हैं। उनके जीवन में बस निराशा होती है। ऐसे लोगों को उत्थान की जगह पर पतन, उन्नति की जगह पर अवनति, उत्कर्ष की जगह पर अपकर्ष और यश की जगह पर अपयश मिलता है। ऐसे लोगों में स्वावलंबन और आत्म-निर्णय की शक्ति खत्म हो जाती है।
पुरुषार्थ का महत्व : पुरुषार्थ व्यक्ति के लिए संसार में कुछ भी असंभव नहीं होता है। लेकिन भाग्यवादियों के लिए तो सब कुछ ही असंभव होता है। गीता में भी भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को कर्मयोग का ही उपदेश दिया था और उसे पुरुषार्थ करने की प्रेरणा दी थी।
पुरुषार्थ में कोई भी व्यक्ति हमेशा अपने उद्देश्य की ओर आगे बढ़ता रहता है और अंत में वह अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में विजय हासिल करता है। इसी कारण कहा जाता है कि उसी व्यक्ति का जीवन सफल होता है जो पुरुषार्थ से अपना, अपनी जाति का और अपने देश का उत्थान करता है।
सुख और दुःख : मनुष्य को अपने जीवन में वास्तविक सुख और शांति उसके द्वारा किये गये कर्मों से मिलती है। जब उसके द्वारा किये गये उसके पुरुषार्थ का फल उसके सामने होता हैं तो उसका ह्रदय खुशी से उछलने लगता है। वो आत्म गौरव का अनुभव करने लगता है।
जो लोग पुरुषार्थी होते हैं उन्हें कभी-भी किसी चीज का अभाव नहीं होता है। वो किसी के सामने हाथ नहीं फैलातें हैं वो अपने श्रम पर दृढ विश्वास रखतें हैं। उसे पता होता कि वह जो भी चाहेगा उसे प्राप्त कर लेगा। वह हमेशा आत्म-निर्भर होता है। उसे कभी-भी दूसरों का मुंह नहीं देखना पड़ता है।
पुरुषार्थ के करने से मनुष्य का अंत:करण गंगा की तरह पूर्ण रूप से पवित्र हो जाता है। संसार के सभी दुःख बस उन्हीं लोगों को सताते हैं जिन लोगों के पास इन सब पर सोचने के लिए समय नहीं होता है और उनकी पूर्ति के साधन भी नहीं होते हैं। उन लोगों के पास इन सब बातों को सोचने के लिए समय ही नहीं होता है।
अकर्मण्यता : बस भगवान की इच्छा और भाग्य पर चलना ही कायरता और अकर्मण्यता होती है। व्यक्ति अपने भाग्य का विधाता खुद होता है। वो दूध में जितनी चीनी डालेगा दूध उतना ही मीठा होगा। जिसने अपने जीवन में उद्देश्य को पूरा करने के लिए जितना परिश्रम किया होगा उसे उसकी सफलता अवश्य मिली होगी। जो लोग खुद की सहायता करने में समर्थ होते हैं भगवान भी उन्हीं की सहायता करता है। जो लोग कायर होते हैं भगवान खुद भी उन लोगों से डरता है।
कर्म का फल : मेहनत करने से व्यक्ति को सबसे बड़ा लाभ होता है कि उसे आत्मिक शक्ति मिलती है। उसका दिल पवित्र होता है, उसके संकल्पों में दिव्यता आती है, उसे सच्चा ऐश्वर्य मिलता है, उससे व्यक्तिगत जीवन में सदैव उन्नति मिलती है। जीवन में सफलता पाने के लिए व्यक्ति क्या काम नहीं करता यहाँ तक कि बुरे से बुरा काम करने के लिए भी तैयार रहता है।
लेकिन अगर वो परिश्रम करे तो सफलता उसके कदम चूमने लगेगी। उसे लगातार सफलता मिलेगी और वह बहुत ही उच्च स्तर पर पहुंच जायेगा। व्यक्ति को केवल इच्छा करने से ही सिद्धि नहीं मिलती है उसे प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को कठिन परिश्रम करना पड़ता है। जो व्यक्ति अपने जीवन में जितना परिश्रम करता है उसे उसके जीवन में उतनी ही सफलता मिलती है।
उपसंहार : हमें अपने देश की उन्नति के लिए भाग्यवाद का त्याग कर पुरुषार्थी बनना होगा। पुरुषार्थी बनने से ही व्यक्ति को धन, यश, मान-सम्मान सब कुछ मिलता है क्योंकि परिश्रमी व्यक्ति ही जीवन में सफलता प्राप्त कर सकता है भाग्यवादी व्यक्ति नहीं।